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________________ श्री गुणस्थान द्वार १८१ कतापूर्वक, निराशी, अव्यामोही अविभ्रमतापूर्वक जाने श्रद्ध परूपे फरसे । यह जीव जघन्य उसी भव मे उत्कृष्ट तीसरे भव मे मोक्ष जावे । सूक्ष्म अर्थात् थोडी सी (पतली सी) सपराय क्रिया शेष रही। अतः इसे सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान कहते है। ११ उपशान्त मोहनीय गुणस्थान :-उपरोक्त २७ प्रकृति और सज्वलन का लोभ एव २८ प्रकृति उपशमावे सर्वथा ढाके (छिपावे ), भस्म ( राख ) से दबी हुई अग्निवत् इस जीव को किस गुण की उत्पत्ति होवे ? उत्तर-यह जीव जीवादिक नव पदार्थ द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से, नोकारसी आदि छमासी तप वीतराग भाव से, यथाख्यातचारित्र पूर्वक जाने, श्रद्ध, परूपे, फरसे । इतने मे यदि काल करे तो अनुत्तर विमान मे जावे, फिर मनुष्य होकर मोक्ष जावे और यदि (काल नहीं करे) सूक्ष्म लोभ का उदय होवे तो कषाय रूप अग्नि प्रकट होकर दसवे गुणस्थान पर से गिरता हुआ यावत् पहले गुणस्थान तक चला आवे (ग्यारहवे गुणस्थान से आगे चढे नही) सर्वथा प्रकारे मोह का उपशम करना (जल से बुझाई हुई अग्निवत् नही) परन्तु भस्म से दबी हुई अग्निवत् उसे उपशान्त मोहनीय गुणस्थान कहते है । १२ क्षीण मोहनीय गुणस्थान -उपरोक्त २८ प्रकृतियो को सर्वथा प्रकारे खपावे क्षायिक श्रेणी, क्षायक भाव, क्षायक समकित, क्षायक यथाख्यात चारित्र, करण सत्य, योग सत्य, भाव सत्य, अमायी, अकषायी, वीतरागी, भाव निर्ग्रन्थ, सम्पूर्ण सम्बुद्ध (निवर्ते), सम्पूर्ण भावितात्मा, महा तपस्वी, महा सुशील अमोही, अविकारी, महा ज्ञानी, महा ध्यानी, वर्द्धमान परिणामी, अपडिवाई होकर अन्तर्मुहूर्त रहे । इस गुणस्थान पर काल करते नही व पुनर्भव होता नही । अन्त समय मे पॉच ज्ञानावरणीय, नव दर्शनावरणीय, पाँच प्रकारे अन्तराय कर्म क्षय करके तेरहवे गुणस्थान पर पहले समय
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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