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________________ १७८ जैनागम स्तोक संग्रह है, परन्तु परिणाम से अव्रत को क्रिया उतर गई है अल्प इच्छा, अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, सुशील, सुव्रती, धर्मिष्ठ, धर्म व्रती, कल्प उन विहारी, महासवेग विहारी, उदासीन, वैराग्यवन्त, एकान्त आर्य, सम्यग् मार्गी, सुसाधु, सुपात्र, उत्तम क्रियावादी, आस्तिक, आराधक, जैनमार्ग प्रभावक, अरिहन्त का शिष्य आदि से इसे वर्णन किया है । यह गीतार्थ का जानकार होता है। शाख सिद्धान्त की श्रावकत्व एक भव में प्रत्येक हजार बार आवे ।। ६ प्रमत्त सयति गुणस्थान :-उक्त ११ प्रकृति व प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ एव १५ प्रकृति का क्षयोपशम करे । इन १५ प्रकृतियो का क्षय करे वह क्षायिक समकित और १५ प्रकृति का उपशम करे व उपशम समकित और कुछ उपशमावे, कुछ क्षय करे व क्षयोपशम समकित । उस समय गौतम स्वामी हाथ जोड, मान मोड़ श्री भगवान को पूछने लगे कि इस गण स्थान वाले को किस गुण की प्राप्ति होवे ? भगवन्त ने उत्तर दिया-यह जीव द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से जीवादिक नव पदार्थ तथा नोकारसी आदि छमासी तप जाने श्रद्ध परूपे, फरसे । साधुत्व एक भव में नव सौ बार आवे । यह जीव जघन्य तीसरे भव में उत्कृष्ट १५ भव में माक्ष जावे ।। आराधक जीव जघन्य पहले देवलोक मे उत्कृष्ट अनुत्तर विमान मे उपजे । १७ भेद से सयम निर्मल पाले, १२ भेदे तपस्या करे, परन्तु योग चपलता, कषाय चपलता, वचन चपलता व दृष्टि चपलता कुछ शेष रह जाने से यद्यपि उत्तम अप्रमाद से रहे तो भी प्रमाद रह जाता है। इसलिये प्रमाद करके कृष्णादिक द्रव्य लेश्या व अशुभ योग से किसी समय परिणति बदल जाती है, जिससे कपाय प्रकृष्टमत्त बन जाता है। इसे प्रमत्त संयति गुणस्थान कहते है। ७ अप्रमत्त संयति गुणस्थान -पाँच प्रमाद का त्याग करे तब सातवे गुणस्थान आवे पाँच प्रमाद का नाम ।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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