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होता है, ऐसा कोई विवरण नहीं है। टीकाकार ने यह बताया है कि- “ पात्रायान्नदानाद्य तीर्थङ्करं नामादि पुण्य - प्रकृतिबंध स्तदन पुण्यं एवं सर्वत्र” – इसका भाव यह है कि पात्र को अन्नादि देने से तीर्थंकर नामादि पुण्य - प्रकृति का बन्ध होता है और उनके सिवाय दूसरों को देने से दूसरी पुण्य प्रकृति का बन्ध होता है, क्योंकि पुण्य - प्रकृतिएँ ४२ प्रकार की हैं सो उत्कृष्ट पात्र को देने से तीर्थकर नाम जैसी उत्कृष्ट पुण्य - प्रकृति का बन्ध है और शेष, जैसे पात्र वैसी - सामान्य विशेष पुण्य प्रकृति जानना । परन्तु तेरह - पन्थी लोग साधु के सिवाय पुण्य प्रकृति का निषेध करने के लिए कहते हैं कि"अनेरा ने दीघां अंनेरी प्रकृति नो वन्ध कह्यो छे ते अनेरी प्रकृति तो पाप नी छे"
('भ्रम - विध्वंसन' पृष्ठ ७६ )
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और भी कहते हैं किअव्रत में दान दे जेहनो टालन रो करे उपायजी । जाने कर्म बंधे छे म्हायरे महांने भोगवतां दुखदायजी ॥ अत्रत में दान देवां तनूँ कोई त्याग करे मन शुद्धजी । तिणरो पाप निरन्तर टालियो तिणरी वीर वखाणी बुद्धजी ॥ ( 'सद्धर्म मण्डन' पृष्ठ १०१ ) अर्थात्-अव्रती ( जो साधु नहीं हैं ) को दान देने से मुझे कर्म का बन्ध होगा, जिनको भोगना महा दुःखदायी होगा, ऐसा