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अधिक है और एक नस जीव की समानता में असंख्य ही नहीं, बल्कि अनन्त स्थावर जीव भी नहीं हो सकते ।
सातवीं दलील देखिये ! तेरह - पन्थो लोग एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को समान तो बताते हैं, लेकिन वे अपने इस सिद्धान्त पर टिक नहीं सकते। मनुष्य जीवन निर्वाह के लिए नित्य असंख्य और अनन्त एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करते हैं। श्रम में भी जीव हैं, पानी में भी जीव हैं, वनस्पति में भी जीव हैं और अग्नि आदि में भी । मनुष्य के जीवन-निर्वाह के लिए इस प्रकार की - हिंसा अनिवार्य मानी जाती है । कदाचित् कोई व्यक्ति तेरहपन्थियों के सिद्धान्त पर विचार करे और सोचे कि बाजरे, गेहूँ या मोठ के एक एक दाने में भी एक एक जीव है और साग तरकारी में तो असंख्य या. अनन्त जीव हैं, लेकिन एक बकरे में | एक हो जीव है, फिर जब एक ही जीव की हिंसा से मेरा काम चल सकता हो, तो गेहूँ, बाजरे, मोठ या साग के असंख्य जीवों. की हिंसा क्यों की जावे ? इस तरह इनके सिद्धान्त को कोई इस रूप व्यवहार में लाने लगे और गेहूँ, बाजरा, अनन्त जीवों की हिंसा से बचकर एक ही अपना काम चलाने लगे, तो क्या यह ठीक होगा ? कदाचित तेरह - पन्थी कहें कि माँस-भक्षण निषिद्ध है, तो हम उनसे कहेंगे, कि माँस भी जीव का कलेवर है और गेहूँ का आटा भी जीवों
मोठ और साग के
बकरे को हिंसा से