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( २३ ) आचारंग सूत्र के अनुसार साधु एक मास में दो बार नदी उतर सकते हैं। ऐसी दशा में एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव समान कैस रहे ? यदि समान होते तो क्या भगवान शास्त्र में इस तरह का विधान कर सकते थे ?
छठी दलील भी देखिये ! साधु जब चलते फिरते हैं, तब वायुकायिक जीवों की भी हिंसा होती है और समय पर जलकाय तथा वनस्पति काय के जीवों की भी। इस तरह से दिन भर प्रत्येक साधु द्वारा असंख्य असंख्य जीवों की हिंसा हो जाती है। दूसरी ओर मान लीजिये कि एक साधु के पैर के नीचे आकर एक पंचेन्द्रिय त्रस जीव मर गया। क्या पंचेन्द्रिय के मरने का प्रायश्चित भी उतना ही होगा, कि जितना प्रायश्चित चलने फिरने से मरने वाले वायु, जल और वनस्पतिकायिक जीवों के लिए होता है ? यदि उतना ही प्रायश्चित होता है, तो क्यों ? पंचेन्द्रिय त्रस जीव तो एक ही मरा है और वायु, जल, वनस्पति के असंख्य तथा अनन्त जीव मरे हैं। फिर एक तरफ असंख्य जीव का प्रायश्चित समान क्यों है ? और यदि उस त्रस जीव के लिए अधिक प्रायश्चित लेना पड़ा, तो अधिक क्यों लेना पड़ा ? जब कि आपकी मान्यतानुसार जीव जीव सब समान हैं, चाहे एकेन्द्रियं हो, द्वीन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय हो। इन दोनों ही बातों से स्पष्ट है कि स्थावर जीवों की अपेक्षा त्रस जीव का महत्व