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इस अनादि अनन्त संसार-सागर में परिभ्रमण करते हुए भव्य प्राणियों के कल्याणार्थ अनन्त भावदया से परिपूर्ण है आत्मा जिनका, ऐसे भगवान महावीर ने मोक्ष-मार्ग का विधान करते हुए सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक् चारित्र की आराधना करने का उपदेश किया है, परन्तु भगवान महावीर सर्वज्ञ होने से संसारी जीवों में क्षयोपशम की विचित्रता को जानकर ज्ञान-दर्शन की आराधना में, साधु और श्रावक का भेद न करते हुए तथा चारित्र आराधना में, साधु और श्रावकों का भेद बतला कर पात्रानुसार, साधु व श्रावक के आचरण का पृथक् पृथक् विधान किया है । जैसे
“धम्मे दुविहे पनत्ते तंजहा-आगार धम्मे चैव-अणगार 'धम्मे चेव” (श्री स्थानांग सूत्र-द्वितीय स्थान)
अर्थ-धर्म दो प्रकार का प्ररूपा है-आगार यानि गृहस्थ के आचरण करने योग्य धर्म और अणगार यानि प्रह-त्यागी साधु के आचरण करने योग्य धर्म । दोनों धर्मों की विशिष्ट व्याख्या करते हुए, भागार धर्म-द्वादश प्रकार का और अणगार धर्म-पांच प्रकार का बतलाया है। दोनों के कल्प, स्थिति और मर्यादा जुदी २ कायम की गई हैं, उन२ मर्यादाओं में रहकर क्रिया अनुष्ठान का • श्रासेवन करे तो वे दोनों ही अपने २ धर्म के आराधक होते हैं। किन्तु मर्यादा का उलंघन करके आसेवना करे, क्रिया अनुष्ठान