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॥ श्रीश जैन-दर्शन में श्वेताम्बर तेरह-पन्थ
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मंगलाचरण जयइ जगजीवजोणि, वियाणओ जगगुरु जगाणंदो। जगणाहो, जगवन्धु, जयइ जगप्पियामहो, भयवं ॥१॥
भावार्थ-पंचास्ती कायात्मक लोकवर्ती जीवों की उत्पत्ति के स्थान को जानने वाले, जगद्गुरु, जगत को आनन्द देने वाले, (त्रि) जगत के नाथ, प्राणि-मात्र के बन्धु और जगत् के पितामह अर्थात-प्राणियों का जो रक्षण करता है, वह धर्म उन प्राणियों का पिता है और उस धर्म को भी भगवान तीर्थङ्कर प्रकट करते हैं, इसलिए प्रभु इस जगत के पितामह हैं। वे समप्र झानादि गुणों से युक्त भगवान महावीर सदा जयवन्त हों और उनका शासन भी सदा जयवन्त हो ।