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उद्धारन नाथ निरंजन । भव भंजन भग
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वंत ॥ पाखंड गंजन । भवि मन रंजन || जिन मघ मां महंतजी ॥ यश० ॥ २ ॥ षट्दश पोपम थोपै 'गणपत । उत्तराधेन संभार ॥ बेपरकार छतीस गुणोधर ॥ सुव आवश्यक सारजी || यश० ॥ ३ ॥ मेरू सो धौर सयंभु सो गंभीर । तन तावनकों सूर ॥ ज्ञान उच्जास प्रगट कियो जब । भागगयो अव भूरजी ॥ यश० ॥ 8 ॥ षट् खंड ज्य षट् मत्त भगो तुम । साझ लिया धरिखंत || शौल घखंडित पालतागण । नव निधि घाङ सोहंतनी ॥ यश० ॥ ५ ॥ दुर्गा कलु कालमें तुं धणोजी । तुं देवन पति देव ॥ चिन्ता चूरन आशा पुरन । मैं करता तुम सेवजी ॥ यश० ॥ ६ ॥ छासठ सावन युग बदी पांचम | लाडणुं सहर सवाय || जोरापर तोरा गुण गावै ॥ लुल लुल शौभ
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