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जैन अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
तत्कालीन अन्य सस्प्रदाय पार्श्व का चातुर्याम धर्म ___ जैसा कि हम पहिले कह चुके है, महावीर ने किसी नवीन मत की स्थापना नही की थी, वल्कि अपनी पितृपरम्परा से प्राप्त पाव के चातुर्याम धर्म को ही देश-काल की परिस्थिति के अनुसार नवीन रूप प्रदान किया । पार्श्व के चातुर्याम धर्म मे अहिसा, सत्य, अचौर्य तथा अपरिग्रह-इन चार वातो की प्रधानता थी। यद्यपि पाव के अपरिग्रह मे ब्रह्मचर्य की भी प्रतिष्ठा थी, क्योकि स्त्री का ग्रहण भी एक प्रकार का परिग्रह ही है, तथापि महावीर ने ब्रह्मचर्य पालन मे शिथिलता देखकर उसे स्वतत्ररूप से मानकर पाँच महावतो की सजा दी । यम की जगह महाव्रत शब्द का उपयोग भी इस वात की ओर सकेत करता है कि वे पार्व के पारम्परिक धर्म को नवीन रूप देकर एक अभूतपूर्व जागति उत्पन्न करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त पार्श्वधर्म मे साधु लोग विविध रंग के वस्त्र पहिनते थे। जव कि महावीर ने उन्हे श्वेत वस्त्र अथवा निर्वस्त्र-रूप अल्प उपधि का उपदेश दिया था। बौद्ध सम्प्रदाय
इस वात से प्राय सभी विद्वान् सहमत है कि महात्मा बुद्ध भगवान् महावीर के समकालीन थे। वुद्ध ने जिस मत का प्रणयन किया था वह यद्यपि बहुत अगो मे जैन धर्म से मिलता है, फिर भी वह जैन धर्म से पृथक्, एक स्वतत्र धर्म है। जैन सूत्रो मे वौद्ध धर्म के सम्बन्ध मे निम्न प्रकार का वर्णन मिलता है। उसमे वौद्धो के दो सम्प्रदाय माने गए है-एक वे, जो मानते है कि जगत का निर्माण पाँच स्कन्धो से होता है। वे पाँच स्कन्ध ये है-१ रूप, २ वेदना, ३. विज्ञान, ४. सना तथा ५ सस्कार । ससार में इनसे भिन्न
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उत्तराध्ययन, २३. १२ वही २३ २९ बा० याकोबी ने महावीर तथा बुद्ध के धर्म की समानता और असमानता पर विस्तार मे विचार किया है। -जन मूत्राज् (भाग १, प्रस्तावना, पृ० १९-२८