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जैन-अंगणास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास अपेक्षा भिक्षुओ के नियमोपनियम के वर्णन में विकसित भूमिका की सूचना मिलती है। इसे हम विक्रम-पूर्व दूसरी गताब्दी में इधर की रचना नहीं कह सकते । यही बात हम अन्य सभी अगो के विषय मे सामान्यत कह सकते है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें जो कुछ सकलित है वह इसी शताब्दी का है। वस्तु तो पुगनी है, वह गणधरो से परम्परा से चली ही आती थी। उसी को सकलित किया गया। इसका मतलव यह भी नहीं समझना चाहिए कि विक्रमपूर्व दूसरी शताब्दी के बाद इसमे कुछ नया नहीं जोडा गया है। स्थानाग जैसे अग प्रथो मे वीर निर्वाण की छठी शताब्दी की घटना का भी उल्लेख मिलता है। किन्तु ऐसे कुछ अशो को छोडकर वाकी सव भाव पुराने ही है। भापा मे यत्र-तत्र काल की परिवर्तित होती हुई गति और प्राकृत भाषा के कारण भापा-विकास के नियमानुसार परिवर्तन होना अनिवार्य है, क्योकि प्राचीन समय मे इसका पठन-पाठन लिखित ग्रन्थो से नही, किन्तु कठोपकठ से होता था। प्रश्नव्याकरणांग का वर्णन जैसा नदीसूत्र में है, उसे देखते हुए उपलब्ध प्रश्नव्याकरण अग सपूर्ण ही वाद की रचना हो, ऐसा प्रतीत होता है। वालभी-वाचना के वाद कव यह अग नष्ट हो गया और कव उसके स्थान मे नया वनाकर जोडा गया, इसके जानने का हमारे पास कोई साधन नही है। इतना ही कहा जा सकता है कि अभयदेव की टीका, जो कि विक्रम १२ वी शताब्दी के प्रारम्भ मे लिखी गई है, उससे पहिले ही वह कभी वन चुका था।' ___ डा० हरमन याकोवी ने भी अपने आचाराग सूत्र की प्रस्तावना मे विस्तार के साथ समस्त आगमो के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार किया है। अगशास्त्र की भाषा, छन्द आदि के गहन अध्ययन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि अगशास्त्र की रचना का काल ३०० ई० पू० के लगभग होना चाहिए, जव आगमो की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र मे हुई थी।
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जैन आगम, पृ० २२, २३ जनसूत्राज् भाग १, प्रस्तावना, पृ ० ४३.