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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
पारमार्थिक दृष्टि से देखा जाए तो सत्य एक ही है, सिद्धान्त एक ही है । नाना देश, काल और पुरुप की दृष्टि से उस सत्य का आविर्भाव नाना प्रकार से होता है, किन्तु उन आविर्भावो में एक ही सनातन सत्य अनुस्यूत है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर जैनागम को अनादि एव अनन्त कहा जाता है। ____नदीसूत्र में कहा है कि-"द्वादशांगभूत गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नही, कभी नही है, ऐसा भी नही, और कभी नही होगा, ऐसा भी नही। वह तो था, है, और होगा। वह ध्रुव है, नियत है, गाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है।"५ ।
वृहत्कल्पभाष्य मे कहा गया है कि ऋपभादि तीर्थंकरो की शरीर-सपत्ति और वर्द्धमान की गरीर-सपत्ति में अत्यन्त वैलक्षण्य होने पर भी इन सभी के धृति, संघयण और शरीर-रचना का विचार किया जाए तथा उनकी आतरिक-योग्यता (केवलज्ञान) का विचार किया जाए तो उन सभी को योग्यता में कोई भेद न होने के कारण उनके उपदेश में भी कोई भेद नहीं हो सकता।'
सभी तीर्थकरो के उपदेश की एकता का उदाहरण अगशास्त्र मे भी मिलता है। आचाराग सूत्र में कहा गया है कि-"जो अरिहत पहिले हो गए है, जो अभी वर्तमान है और जो भविष्य में होगे, उन सभी का एक ही उपदेश है कि किसी भी प्राण, जीव, भूत और सत्त्व की हत्या मत करो, उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ, उनको दास मत बनाओ और उनको मत सताओ। यही मार्ग ध्रव है, नित्य है, गाश्वत है और विवेकी पुरुषो द्वारा बताया हुआ है।" 3
उपर्युक्त कथन से यह वात निर्विवाद सिद्ध है कि सत्य की जो अविच्छिन्न धारा अगणित काल से चली आ रही है, मध्य मे उत्पन्न होने वाले आदर्श महापुरुपो ने उसी धारा का अपनी अपनी दृष्टि से उद्धार एव सम्वर्धन किया है। सत्य का आविर्भाव किस रूप में
१ नदीसूत्र, ५७ २ वृहत्कल्प भाष्य, २०२, २०३ ३ आचाराग १, ४, १२६