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जैन- अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
ने एक ही धर्म को केवल अवस्थाभेद से दो प्रकार का कहा है । उन्होने दोनों वर्गों के व्यक्ति के लिए पूर्णरूप से अलग धर्मो की व्यवस्था नही की तथा महावीर ने श्रमण और श्रमणोपासक दोनो के लिए आलोचना तथा प्रतिक्रमण की व्यवस्था की ओर इसी प्रकार दोनो के लिए मृत्यु काल मे सल्लेखना का भी विधान किया ।
महावीर ने कभी भी गृहस्थधर्म की निन्दा नही की । इसके विपरीत उन्होने गृहस्थधर्म को साधुधर्म की प्रथम श्रेणी माना है। गृहस्थ की प्रतिमाओ मे अतिम " श्रमणभूत" प्रतिमा पर विचार करने से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है ।"
इस प्रकार हम कह सकते है कि जैन परम्परा मे विकास की दोनों श्रेणियों के परस्पर समन्वय पर पूर्ण बल दिया गया है ।
१. समवायाग, ११