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अष्टम अध्याय . उपसंहार
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___ मनुष्य यदि इस सत्य-परीक्षण की शुद्ध दृष्टि को प्राप्त कर अनात्मा से सम्बन्ध छोड़ आत्मोन्मुख हो जाय तो वह निरन्तर विकास करता हुआ मानवजीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। मानवीय विकास की इस रूपरेखा को ठीक तरह समझने के लिए हमे जैन-परम्परा के आदर्शो की ओर अपनी दृष्टि दौड़ानी पड़ेगी।
जैन-परम्परा के आदर्श मानवीय विकास की जैन-परम्परा को समझने के लिए हमे संक्षेप मे उन आदर्शों का परिचय प्राप्त करना होगा, जो पहिले से आज तक जैन-परम्परा मे सर्वमान्य रहे है।
सबसे प्राचीन आदर्श जैन-परम्परा के समक्ष ऋषभदेव और उनके परिवार का है। ऋषभदेव ने अपने जीवन का वहुभाग उन उत्तरदायित्वों को बुद्धिपूर्वक निभाने मे व्यतीत किया, जो प्रजापालन के साथ उन पर आ पड़े थे। उन्होने उस समय के विलकुल अपढ़ लोगो को पढना-लिखना सिखाया, कुछ कामधन्धा न जानने वाले वनचरो को खेती-बाड़ी तथा बढ़ई, कुम्हार आदि के जीवनोपयोगी धन्धे सिखाए, आपस मे कैसे व्यवहार करना, कैसे सामाजिक नियमो का पालन करना ? यह भी सिखाया । जब उनको यह जान हो गया कि उनका वडा पुत्र भरत प्रजापालन के समस्त उत्तरदायित्वो को सम्हालने के योग्य हो गया है, तब वे राज्य का भार उसे सौप कर गहन आध्यात्मिक विपयो की छानबीन के लिए तपस्वी हो कर घर से निकल पडे । ___ ऋषभ के भरत और वाहुवलि नामक पुत्रो मे राज्य के निमित्त भयानक युद्ध प्रारम्भ हुआ । अन्त मे युद्ध का निर्णय हुआ। भरत का प्रचण्ड प्रहार निष्फल गया । जव बाहुवली की बारी आई और समर्थतर बाहुवली को जान पड़ा कि मेरे मुष्टि-प्रहार से भरत की अवश्य दुर्दशा होगी, तब उसने भ्रातृविजयाभिमुख क्षण को आत्मविजय मे वदल दिया। उन्होने यह सोच कर कि राज्य के निमित्त लड़ाई मे विजय पाने
और वैर-प्रतिवैर तथा कुटुम्व-कलह के बीज वोने की अपेक्षा सच्ची विजय अहंकार और तृष्णा पर जय मे ही है, अपने वाहुवल को क्रोध और अभिमान पर ही जमाया और अवैर से वैर के प्रतिकार के जीवन का