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सप्तम अध्याय ब्राह्मण तथा श्रमण-संस्कृति
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ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का व्रत मुनि और गृहस्थ दोनो के लिए समान रूप से लेना पड़ता था। मुनि के लिए यह महाव्रत होता था और वे इसको सर्वत ग्रहण करते थे, पर गृहस्थ के लिए इनका सर्वत ग्रहण करना असंभव ही है । ऐसी परिस्थिति मे उनका व्रत केवल आंशिक ही होता था। उनके आंशिक वत का नाभ अशुव्रत था।
अणुव्रतो के साथ गृहस्थ को सात शिक्षाव्रत भी ग्रहण करना पड़ते थे, जिनके अनुसार वह जीवनपर्यन्त चारो दिशाओ मे आने जाने का नियम, निप्प्रयोजन हिसादि पापो का त्याग, सामायिक, उपवास, उपभोग की वस्तुओ का परिमाण निश्चित करना तथा अतिथिसंविभाग व्रत की प्रतिज्ञा करता था।' इन व्रतो मे से सामायिक, पोषधोपवास और यथासंविभागवत क्रमश. वैदिक संस्कृति के ब्रह्मयज्ञ, व्रतोपवास और अतिथियन के समकक्ष है । गृहस्थ-जीवन का अत सल्लेखना-विधि से होना चाहिए । इसके अनुसार शुद्ध मन हो कर, सभी विकारो से मुक्त हो कर और सभी लोगो से क्षमादान ले कर अपने समस्त पूर्वकृत पापों की आलोचना की जाती थी । अन्त मे महाव्रतो को अपना कर शोक, भय, विषाद, अरति आदि से चित्त को विमुक्त कर भोजन, पेय का सर्वथा त्याग कर के समाधिमरण अपना लिया जाता था ।
बौद्ध-संस्कृति मे गृहस्थ भी बुद्ध, धर्म तथा संघ की शरण मे जाते थे। उन्हे चार आर्यसत्यो का अभ्यास करना पड़ता था । गौतम स्वयं गृहस्थो का सम्मान करते थे। बौद्ध-भिक्ष, गृहस्थो के उपकार से कृतज्ञ होते थे। फिर भी साधारणतः बौद्धाचायों का मत था कि यथाशीघ्र गृहस्थाश्रम को छोड देने मे ही कल्याण है । जो नहीं छोड़ सकते है, वे भले ही गृहस्थ उपासक बने रहे । उपासक बनना व्यक्तित्व के विकास की सबसे पहली सीढी मानी गई है । उपासक से आशा की जाती थी कि वह वौद्ध साधुओ की उत्कृष्टता देख कर स्वयं ही उनके समान बनने के लिए प्रव्रज्या ले ले।'
१ नायाधम्मकहाओ, १, ६०, पृ० ७४ । २ उपासकदशाग, १, ७, पृ० २१ । ३ महावग्ग, ५, १३, ५, १ ।