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सप्तम अध्याय : ब्राह्मण तथा श्रमण-संस्कृति
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विचारक थे। सुत्तनिपात के अनुसार मातंग नामक चाण्डाल तो इतना बड़ा आचार्य हो गया था कि उसके यहाँ अध्ययन करने के लिए अनेक उच्चवर्ण के लोग आते थे।
जैन-संस्कृति में चाण्डालो तक का दार्शनिक शिक्षा पा कर महर्षि वनना संभव था । उत्तराध्ययन मे हरिकेशवल नामक चाण्डाल की चर्चा आती है, जो स्वयं ऋषि वन गया था और सभी गुणों से अलंकृत हुमा । जैनशास्त्रो मे यह स्पप्ट रूप से कहा गया है कि वर्ण-व्यवस्था जन्मगत नही किन्तु कर्मगत है। "कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है तथा कर्म से शूद्र होता है।"३
वौद्ध संस्कृति मे भी ज्ञान के द्वारा व्यक्तित्व का विकास करने का मार्ग सबके लिए समान रूप से खोल दिया गया था। एक बार संघ मे प्रवेश पा जाने पर ज्ञान पाने की दिशा मे अपनी शद्रजाति के कारण किसी प्रकार की वाधा नहीं रह जाती थी। गौतम के जीवनकाल मे ही शद्रवर्ग के असंख्य व्यक्ति उनके शिष्य बन चुके थे ।
विद्यालय-वैदिक काल में प्राय प्रत्येक विद्वान गृहस्थ का घर विद्यालय होता था। क्योकि गृहस्थ के पाँच यज्ञो मे बह्मयज्ञ की पूर्ति के लिए गृहस्थ को अध्यापन-कार्य करना आवश्यक था ।६ जिन वनी, पर्वतो और उपनद-प्रदेशो को लोगो ने स्वास्थ्य-संवर्धन के लिए उपयोगी माना वे स्थान आचार्यों ने अपने आश्रम और विद्यालयो के उपयोग के लिए चुने । महाभारत मे कण्व, व्यास, भारद्वाज, और परशुराम आदि के आश्रमो के वर्णन मिलते है । रामायण-कालीन चित्रकूट मे वाल्मीकि का आश्रम था।
१. सेतुजातक, ३७७।। २. उत्तराध्ययन, १२, १ ।
वही २५, ३३ । ४ चुल्लवग्ग, ६, १, ४, महावग्ग, ६, ३७, १।। ५ छान्दोग्य उपनिपद्, ८, १५, १, ४, ६, १ तथा २, २३, १।। ६ अध्यापन ब्रह्मयज्ञ. मनुस्मृति, ३, ७० । ७ आदिपर्व, ७०। ८. रामायण, २, ५६, १६ ।।