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सप्तम अध्याय : ब्राह्मण तथा श्रमण-संस्कृति
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जैन तथा बौद्ध संस्कृति का अन्तर-महावीर और बुद्ध न केवल समकालीन ही थे, बल्कि वे बहुधा एक ही प्रदेश में विचरने वाले तथा समान और समकक्ष अनुयायियो को एक ही भापा "प्राकृत" मे उपदेश करते थे। दोनो के मुख्य उद्देश्य मे कोई अन्तर नही था। फिर भी महावीर-पोषित तथा वुद्ध-संचालित सम्प्रदायो मे प्रारंभ से ही विशेष अंतर रहा है, जो ज्ञातव्य है। वौद्ध-सम्प्रदाय वुद्ध को ही आदर्शरूप से पूजता है तथा वुद्ध के ही उपदेशो का आदर करता है, जब कि जनसम्प्रदाय महावीर आदि चौवीस तीर्थ कर को इप्टदेव मान कर उन सभी के वचनो का आदर करता है। वौद्ध, चित्त-शुद्धि के लिए ध्यान और मानसिक संयम पर जितना वल देते हैं, उतना वल वाह्यतप और देहदमन पर नहीं। जैन, ध्यान और मानसिक सयम के अतिरिक्त देहदमन पर भी अधिक बल देते रहे। बुद्ध का जीवन जितना लोगो मे हिलने-मिलने वाला तथा उनके उपदेश जितने अधिक सीधे-सादे लोकसेवागामी है, वैसा महावीर का जीवन और उपदेश नही। बौद्धअनगार की वाह्यचर्या उतनी नियत्रित नही रही, जितनी जैन-अनगारो की रही। इसके अतिरिक्त और भी अनेक विशेपताएँ है, जिनके कारण बौद्ध-सम्प्रदाय भारत के समुद्र और पर्वतो की सीमा लॉघ कर उस पुराने समय मे भी विभिन्न-भाषाभापी, सभ्य-असभ्य अनेक जातियो मे दूर-दूर तक फैला और करोडो अभारतीयो ने भी बौद्ध आचार-विचार को अपने-अपने ढंग से, अपनी-अपनी भाषा मे उतारा व अपनाया जव कि जैन-सम्प्रदाय के संवध मे ऐसा नही हुआ । ब्राह्मण तथा श्रमण संस्कृति का अन्तर
वैषम्य तथा साम्यदृष्टि-ब्राह्मण तथा श्रमण सस्कृतियो के मध्य छोटे-बडे अनेक विषयो मे मौलिक अतर है। पर उस अतर को सक्षेप
१. "भिक्ष ओ, इन अतियो का सेवन नहीं करना चाहिए-१ काममुख मे लिप्त होना २. गरीर पीडा मे लगना।" सयुक्तनिकाय, ५५, २, १। "शरीर को सताप देना जडता की निशानी है ।" प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति,
१, ३४२ । २. जनसस्कृति का हृदय, पृ० १० ।