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के भीतर दुर्गन्ध से भरे हुए भागो को जानता है और शरीर के मल निकलने वाले भागो के स्वरूप को भी समझता है । बुद्धिमान इसको ठीक तरह समझ कर निकली हुई लार को चाटने वाले वालक की तरह त्यागे हुए भोगो मे फिर लिप्त नही होता ।""
षष्ठ अध्याय श्रमण-जीवन
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१. वही
१, २, १३, १४, पृ० १५