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________________ षष्ठ अध्याय : श्रमण-जीवन [ २११ जो दूसरो के प्रति असावधान रहता है, वह अपनी आत्मा के प्रति असावधान रहता है | जो अपनी आत्मा के प्रति असावधान रहता है, वह दूसरे जीवो के प्रति असावधान रहता है ।" " अप्रमाद अहिंसा की आधारशिला है- किसी को जीवनविमुक्त कर देना अथवा कष्ट देना ही हिसा नही है । हिंसा का आधार तो हिंसा की भावना है । प्राणिहिसा होने पर भी मन की पवित्रता से व्यक्ति अहिंसक हो सकता है और प्राणिहिंसा न होने पर भी यदि हृदय में प्राणी को रक्षा के भाव नही है तो अप्रमाद के कारण व्यक्ति हिंसक माना जायेगा । आलस्य के कारण हृदय मे प्राणी की रक्षा के भाव तथा रक्षारूप प्रवृत्ति न होना प्रमाद है । आचारांग मे कहा है कि, " प्रमाद और उसके कारण कामादि मे आसक्ति हिसा है । श्रमण हमेशा इस वात का विचार करता रहता है कि वह एक क्षण के लिए भी प्रमत्त न हो । प्रमाद को कर्म तथा अप्रमाद को अकर्म कहा गया है । 3 महावीर ने वार वार कहा है कि, "श्रमण को थोड़ासा भी प्रमाद नही करना चाहिए ।"४ प्रमाद को दृष्टि में रखकर ही श्रमण के दो भेद किए गए है : १. प्रमत्तसंयत, तथा २ अप्रमत्तसंयत । प्रमादी श्रमण प्रथम कोटि मे तथा अप्रमादी श्रमण द्वितीय कोटि मे आता है । प्रमादी मनुष्य सर्वदा भयग्रस्त रहता है और अप्रमादी निर्भय हो कर विचरण करता है ।" शरीर तथा कामभोगों मे आसक्ति संसार का कारण है— श्रमण जव तक शरीर तथा इन्द्रिय के विषयो मे मूछित रहेगा, वह कभी १. २ imo = us ३. ५. आचारांग (हि०) १, १, २२, पृ० ८ वही १, १, ३४, ३५, पृ० ८ सूत्रकृतांग (हि०) २, ३, पृ० १३७ । आचाराग (हि१) १, २, ८४, १, १, ८०, ९५ पृ० १४ । समवायांग, १४। आचाराग ( हि०) १, १, १२३, पृ० २४ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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