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षष्ठ अध्याय : श्रमण-जीवन
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विहार — वर्षाऋतु प्रारम्भ होने पर भिक्षु को चाहिए कि वह गाँवगाँव घूमना बन्द करके सयम के स्थान पर चातुर्मास (वर्षावास) करके रहे । वर्षाऋतु के वाद हेमन्तऋतु के भी दस - पाँच दिन व्यतीत हो जाने पर जब मार्ग मे जीव-जन्तु तथा घास कम हो जाए तथा लोगो का आना-जाना प्रारम्भ हो जाए तब भिक्षु सावधानी से विहार करे । '
१
भिक्ष ु को चलते समय अपने समक्ष चार हाथ जमीन पर दृष्टि रखकर जीव-जन्तु को बचाते हुए चलना चाहिए । जाते समय यदि साथ मे आचार्य, उपाध्याय या अपने से अधिक गुणसम्पन्न साधु हो तो भिक्षु को चाहिए कि वह इस प्रकार चले कि उनके हाथ पैर से अपना हाथ पैर न टकराए । '
मार्ग मे हिसक पशुओ को देख कर उनसे डर कर भिक्षु को मार्ग छोडकर वन, झाडी आदि दुर्गम स्थानो मे न घुसना, न पेड़ पर चढ़ना, न पानी मे कूदना और न किसी प्रकार के हथियार आदि की शरण लेना चाहिए; किन्तु थोड़ा-सा भी विचलित हुए बिना संयमपूर्वक चलते रहना चाहिए । यदि मार्ग मे लुटेरो का झुंड मिल जाए और वे वस्त्रादि छीन ले तो उन्हे नमस्कार, प्रार्थना आदि करके वस्तुएँ वापिस नही माँगना चाहिए; किन्तु उपेक्षाभाव धारण कर लेना चाहिए ।
यदि एक गाँव से दूसरे गाँव जाते समय मार्ग में कमर तक पानी पार करना पडे तो पहिले सिर से पैर तक शरीर को साफ कर निर्जीव कर ले फिर एक पैर पानी मे, और दूसरा पैर जमीन पर रख कर सावधानी से अपने हाथ-पैर एक दूसरे से न टकरावे, इस प्रकार जल को पार करे |४
१.
आचाराग (हि०) २, ३, १११-११३, पृ० १४, ६५ ।
२.
वही
२, ३, ११४, १२८, पृ० ९५ ।
३.
वही
४ वही
२, ३, १३१, पृ० ६७, ६८
२, ३, ११८, पृ० ६६ ।