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षष्ठ अध्याय : श्रमण-जीवन
[ २०५ श्रमण की जीवन-चर्या
भिक्षावृत्ति-भिक्षु क्षत्रिय, वैश्य, ग्वाल, वुनकर आदि किसी भी अनिन्दित व अगहित कुल मे भिक्षाचर्या के लिए जा सकता है, किन्तु उसे चक्रवर्ती राजा, राजकर्मचारी तथा राजवंशियो के यहा भिक्षा ग्रहण करने न जाना चाहिए। जिस मार्ग मे गढ, टेकर, गड्ढे, खाई, कोट आदि हों तथा जहाँ भयंकर पशु विचरते हो; उस मार्ग से भिक्षावृत्ति को नही जाना चाहिए। भिक्षावृत्ति को जाते सनय साधु को अपने वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि समस्त धर्मोपकरण साथ मे ले जाना चाहिए । भिक्षा मांगने जाते समय साधु को गृहस्थ के घर का दरवाजा उसकी अनुमति के विना तया विना देखे-भाले नही खोलना चाहिए। यदि किसी जगह भोज (संखडि) हो तो उस ओर साधु को चला कर भिक्षावृत्ति के लिए नहीं आना चाहिए।
यदि दाता का हाय या पात्र सूक्ष्म जीव, बीज या वनस्पति आदि सचित्त वस्तु से युक्त है तो उसके हाथ से या पात्र से भोजन नही लेना चाहिए। यदि धान्य, फल, फली आदि भोज्य वस्तु चाकू आदि से काटी हुई नही है तथा अन्ति द्वारा पूर्णरूप से पकाई हुई नहीं है, उसकी उगने की शक्ति पूर्णतया नष्ट नहीं हुई है तो उसे सदोप समझ कर भिक्षु को ग्रहण नही करना चाहिए। ४ भिक्षु आहार ग्रहण करने के वाद उसमे से अच्छा (स्वादिष्ट) आहार सेवन कर ले तथा खराव छोड दे, तो उससे दोष लगता है। अत साधु को अच्छा-बुरा सब भोजन समभाव से स्वीकार कर लेना चाहिए। ___आहार-पानी के सबध में भिक्षुओ के सात नियम है । ये नियम सप्तपिण्डेपणाएँ तया "सप्तपानपणाएँ" कहलाते है । वे इस प्रकार है
४ ५. १
वहीं
आचाराग (हि०) २, १, ११, २१, पृ० ६८ ।
वही २, १,२६, २७, ३१ पृ० ६८, ६६ । आचाराग (हि०)२, १, १६, २०, पृ० ६६ ।
२, १, १३, पृ०७१ । २, १, १, पृ० ७३ । २, १, २, पृ०७३। २,१,५२-५४ पृ० ७६ । २, १, ६३ पृ० ८१-८३ ।