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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
नवगैवेयक देवो के सुख को तया वारह मास की दीक्षा वाला श्रमण अनुत्तरौपपातिक देवो के सुख को अतिक्रमण कर जाता है।' प्रव्रज्या
जो व्यक्ति ससार से विराग प्राप्त कर श्रमण-जीवन को ग्रहण करने का इच्छुक होता है, वह विना किसी जातिभेद अथवा श्रेणि-भेद के जैनसघ मे सम्मिलित कर लिया जाता है । केवल साधारण मनुष्य ही श्रमण नही होते है; किन्तु बड़े-बड़े योद्धा, धनी, मानी तथा ज्ञानी व्यक्ति श्रमण-जीवन स्वीकार करते है। यह सोचते हुए कि यह सासारिक इन्द्रियभोग व्यर्थ है; जीवन पानी के बुलबुले के समान क्षणस्थायी है, वे अपना समस्त वैभव तथा कुटुम्ब को छोड कर साधु जीवन स्वीकार कर लेते है।
प्रव्रज्या के कारण स्थानागसूत्र मे प्रव्रज्या के दश भेद बतलाए गए है।
१. छन्दा (ससार से स्वत विरक्त होकर प्रवज्या धारण
करना)।
रोषा (अचानक क्रोध के कारण प्रव्रज्या ले लेना)। ३ दारिद्र यद्य ना (दरिद्रता के कारण प्रव्रज्या स्वीकार
करना)। स्वप्ना (संसार से विराग पैदा करने वाला स्वप्न देख कर प्रवज्या स्वीकार करना)। प्रतिश्रु ता (पहिले की गई प्रतिज्ञा-पूर्ति के निमित्त प्रव्रज्या लेना)। स्मारणिका (पूर्वभव की स्मृति के कारण प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना)। रोगिणिका (वीमारी के कारण प्रव्रज्या अगीकार
करना)। ८. अनादृता (अपमान के कारण प्रव्रज्या अंगीकार करना)।
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१ २.
भगवती, १४, ९। औपपातिक, १४, ४९ ।