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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
और परिग्रह-परिमाणभाव की मर्यादित साधना प्रारम्भ हो जाती है। सर्वथा न करने से कुछ करना अच्छा है, यह आदर्श इस भूमिका का है।' __ गृहस्थ के जीवन मे पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वो का एक बहुत बड़ा भार है। ऐसी स्थिति मे पूर्णत्याग का मार्ग तो अपनाया नहीं जा सकता; परन्तु अपनी स्थिति के अनुसार मर्यादित त्याग तो ग्रहण किया ही जा सकता है । इस मर्यादित एव आशिक त्याग का नाम ही आगम की भाषा मे देशविरति है।
उपासक-अवस्था के भेद
यद्यपि जैन-सूत्रो मे स्पष्ट रूप से उपासक-जीवन के भेदो का कोई वर्णन नही मिलता किन्तु उसके जीवन-क्रम को देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि उपासक के जीवन की तीन अवस्थाएँ होती है ।
प्रथम अवस्था-गृह कार्यो मे व्यस्त मानव, अनन्त पुण्योदय से जब किसी साधु अथवा धर्मज्ञ के समागम को प्राप्त कर उससे धर्म का श्रवण करता है तो उसके हृदय मे धर्म के प्रति अपूर्व आस्था उत्पन्न हो जाती है । उसे अपना असयमित एव अमर्यादित जीवन भारस्वरूप एव कष्टप्रद प्रतीत होने लगता है । वह विनीत भाव से साधु के निकट जाकर उनसे अपने जीवन को संयमपूर्ण बनाने की अभिलापा प्रकट करता है
और साधु द्वारा अपने विचारो का समर्थन प्राप्त कर वह उनके निकट पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप उपासकधर्म को स्वीकार करता है । इस प्रकार घर पर रहकर उपासक के बारह व्रतो का पालन करना उपासक की प्रथम अवस्था है।
द्वितीय अवस्था कुछ वर्षों तक वारह व्रतो का पालन करने के बाद उपासक को ऐसा प्रतीत होने लगता है कि घर मे उपासक के व्रतो का निरतिचार (निर्दोष) पालन करना उसके लिए असम्भव है। अत. वह मित्रो, कुटुम्बिजनो आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र पर घर का भार डाल
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"उपासक के पाँच अणुव्रत" उपासकदशाग, १, ४, पृ० ४ । उपासकदशाग, १, ३-५, पृ० २-५ ।