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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
तप के द्वारा संचित कर्मों का नाश कर कर्मसंतति से हमेशा के लिए मुक्ति पा लेता है। कर्म-बन्धन से पूर्ण मुक्ति पा लेना ही आत्मा की सर्वोच्च विकसित अवस्था है । इसी को निर्वाणप्राप्ति कहते है, और यही सिद्ध-अवस्था कहलाती है।
अरिहंत-अवस्था मे चार आत्मनाशक कर्मों का अभाव होता है। शरीर के सम्बन्ध से अन्य चार कर्म उसके उपस्थित रहते है। जिस समय वह शरीर छोडता है, तत्क्षण अवशिष्ट चार कर्मों का भी अभाव हो जाने के कारण वह सिद्ध हो जाता है ।' महावीर ने जिस क्षण अपापा (पावा) मे मृत्यु को प्राप्त किया, उसी क्षण वे सिद्ध, बुद्ध तथा मुक्त हो गए।
सिद्धो के आठ ही कर्मो का अभाव हो जाता है। इसी बात को दृष्टि मे रख कर समवायाग सूत्र मे सिद्ध के ३१ गुणो का वर्णन किया गया है। आभिनिबोधिक ज्ञानावरणादि पाँच ज्ञानावरणो के अभाव से ज्ञान सम्बन्धी पाँच गुरण, चक्षु दर्शनावरणादि नौ दर्शनावरणो के अभाव से दर्शन-सम्बन्धी नौ गुण, सातावेदनीय तथा असतावेदनीय के अभाव से दो गुण, दर्शनमोहनीय तथा चरित्रमोहनीय के अभाव से दो गुण, नरकादि चार आयु के अभाव से चार गुण, उच्चगोत्र और नीचगोत्र के अभाव से दो गुण, शुभनाम तथा अशुभनाम के अभाव से दो गुण, दानान्तराय आदि पॉच अन्तरायो के अभाव से पाँच गुण इस प्रकार (५+8+ २+२+४+२+२+५) सिद्धो के कुल ३१ गुण कहे गए है। 3
सिद्धो को प्रथमसमय सिद्ध अयोग-केवली तथा विदेहमुक्त कहा जाता है। आचार्य
व्यवस्था और अनुशासन की दृष्टि से श्रमणजीवन के जो तीन भेद किये जाते है उनमे आचार्य का स्थान सबसे प्रधान एवं प्रथम है। द्वित्तीय स्थान उपाध्याय का तथा अन्तिम स्थान साधु का है।
१. स्थानाग, १९६ २ कल्पसूत्र १ ५ १२३ (जैनसूत्राउ भाग १) ३ समवायाग, ३१ । ४ तुलना 'अय देह अवसाने कार्यसस्काराणामपि विनाशात् परमकैवल्य___ मानन्दैकरस अखड ब्रह्मावतिष्ठते' वेदान्तसार, पृ० २५ ।