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________________ चतुर्थ अध्याय मानव-व्यक्तित्व का विकास [ १२१ विकास की चरम अवस्था प्रव्रज्या-ग्रहण के बाद साधु की विषय-विरागता अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है । भौतिक इन्द्रियो के प्रयोग द्वारा वह वस्तुओ को जान तो लेता है, किन्तु किसी भी वस्तु के प्रति उसे प्राप्त करने की अभिलाषा नही करता ।' सम्पूर्ण प्रकार से विषय-विरक्त साधु के जीवन का केवल एक ही महान् उद्देश्य रह जाता है, वह है निरन्तर आत्मविकास । और इस उद्देश्य के सामने उसके जीवन की समस्त क्रियाएँ गौण हो जाती है । चलना, फिरना, खाना, पीना, उठना, बैठना सभी कार्य आत्म-विकास की दिशा में होते है। अन्त मे पूर्णमुक्त वह जीव केवल आत्म-तत्त्व को प्राप्त कर लेता है । जिसे जैनागम की भाषा में निर्वाण-प्राप्ति कहते है । व्यक्तित्व-विकास की विभिन्न अवस्थाएं (अ) जैनधर्म मे पॉच प्रकार की अवस्था वाले व्यक्ति सर्वोत्कृष्ट एवं लोकपूज्य माने गए है। उनके नाम इस प्रकार है (१) अरिहंत, (२) सिद्ध, (३) आयरिय (आचार्य), (४) उवज्झाय (उपाध्याय), (५) साहू (साधु) अरिहंत तथा सिद्ध, ये साधना की पूर्ण अवस्थाएँ है । सिद्ध विदेहमुक्त तथा अरिह त सदेह-मुक्त परमात्मा है । अन्य अवस्थाएं साधना के पथ पर चलने वाले साधक की है। ये सभी अवस्थाएँ एक अपवाद को छोड़ कर अपनी योग्यता से क्रम से रखी गई है। वह अपवाद है, सिद्ध के पहिले अरिहंत का आना । इसका कारण संभवत यह जान पड़ता है कि, चूकि संसारी; व्यक्तियो का प्रत्यक्ष सम्बन्ध (उपदेश आदि के कारण) अरिहंत से होता है , अत उनका स्मरण सिद्ध से पूर्व किया गया है। यद्यपि सिद्धावस्था अरिहंत की अपेक्षा उत्कृष्ट है । १ २ वही, १, २, ७५ समवायाग, १. 'णमो अरिहताण, णमो सिद्धाण, णमो आयरियाण, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं', भगवती, १, १, १, २, कल्पसूत्र, १, १, १ । श्रमणसूत्र पृ० १२, १३ । ४
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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