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चतुर्थ अध्याय : मानव-व्यक्तित्व का विकास
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sfer-विषयो के प्रति विराग-शब्दादि इन्द्रिय-विपयो के प्रति अनुरक्त व्यक्ति दुखी हो कर प्रमादी हो जाता है । प्रमाद के कारण ज्ञान का ह्रास और मोह ( अज्ञान ) की वृद्धि होती है । वह सोचने लगता है कि यह मेरा पिता है, यह मेरी माता है, वह मेरी स्त्री, पुत्र, वधू, मित्र, नाते-रिश्तेदार है । यह मेरी अनेक प्रकार की धन-सम्पत्ति है, भोजन-वस्त्र आदि है, इस प्रकार का मोह भी उसे होता है । यह मोही- प्राणी रात-दिन दुखी होता हुआ इप्ट - पदार्थो के संयोग की अभिलापा करता है और पुनः धनादिक मे लुब्ध हो कर अनेक प्रकार के हिसात्मक कार्यो मे प्रवृत्त होने लगता है । अत ज्ञानी पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह इन्द्रियो के विपयो से दूर रहने का निरन्तर अभ्यास करे । ' उपासक तथा श्रमण, जीवन
जैन-धर्म मे आचरण को चारित्र कहते है । चारित्र का अर्थ है संयम, वासनाओ तथा भोग-विलासो का त्याग, इन्द्रियो का निग्रह, अशुभ प्रवृत्ति की निवृत्ति और शुभ प्रवृत्ति की स्वीकृति |
चारित्र के प्रधानरूप से दो भेद माने गए है, अगार चारित्र, तथा अनगार चारित्र | जीवन की पूर्ण त्यागवृत्ति अनगारचारित्र है तथा अपूर्णरूप से त्यागवृत्ति अगारचरित्र है । पूर्ण त्याग महाव्रत होता है । महाव्रत का अर्थ है, हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा प्रत्याख्यान | यह साधुओ के लिए होता है । हिसादि का एकदेश से प्रत्याख्यान अणुव्रत कहलाता है, यह उपासक (गृहस्थ ) के लिए है | 3
उपासक - हृदय मे आत्मतत्त्व के प्रति दृढ विश्वास ले कर, आत्मा तथा अनात्मा के भेट को समझ कर साधना के पथ पर चलने के लिए प्रयत्नशील मनुष्य जव हिंसादि पापो से अपनी परिस्थिति के अनुसार विरक्त होने का संकल्प करता है तो उसे साधकजीवन की सबसे पहली उपासक अवस्था प्राप्त होती है । वह घर मे ही रह कर निरन्तर अहिंसातत्त्व की साधना मे संलग्न रहता है । गार्हस्थिक कार्यवश यदि वह
१ आचाराग, १, १, ६२ ।
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"चरितम् दुविहे पण्णत्ते, तजहा, अगारचरित्तधम्मे चेव अणगारचरितम्मे चेव" स्थानाग ७२ ।
३. स्थानांग, ३८९ ।