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जैन - अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
के लिए कुछ अन्य बातो की भी आवश्यकता होती है । स्थानाग-सूत्र मे लिखा है कि मानव-व्यक्तित्व के विकास के यह छह स्थान सभी जीवो को सुलभ नही है - (१) मनुष्यभव, (२) आर्यक्षेत्र मे जन्म, (३) सत्कुल मे उत्पत्ति, (४) केवलिप्रज्ञप्त धर्म के सुनने का अवसर (५) धर्म मे श्रद्धा, तथा (६) श्रद्धा से गृहीत धर्म का शरीर से आचरण ।
उपर्युक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मनुष्य को अपना पूर्ण विकास करने के लिए जहाँ एक ओर मनुष्य जीवन तथा आर्यक्षेत्र एवं सुकुल में जन्मरूप भौतिक साधनो की आवश्यकता है, वहाँ दूसरी ओर जिनोपदिष्ट धर्म का श्रवण कर श्रद्धापूर्वक उसके आचरणरूप आध्यात्मिक साधनो की भी आवश्यकता है ।" इसी बात को उत्तराध्ययन मे भी दुहराया गया कि - " प्राणिमात्र को इन चार अगो की प्राप्ति होना इस संसार में दुर्लभ है– (१) मनुष्यत्व, (२) श्रुति, (३) श्रद्धा, (४) और संयम - पालन मे शक्ति लगाना ।"२
मानव-जीवन प्रारम्भ से ही अच्छा या बुरा नही होता, वह तो कच्ची गीली मिट्टी के समान है, जिसे चाहे जिस रूप मे परिवर्तित किया जा सकता है | चाहे उसके द्वारा अपना और दूसरो का कल्याण कर लो, चाहे उसे व्यर्थ ही पड़ा रहने दो । जन्म के समय मनुष्य को जीवन के अतिरिक्त अनेक वस्तुएँ प्राप्त होती है । मनुष्य का शरीर सबसे प्रथम वस्तु है जो कि उसे जीवन मे महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान करती है । शरीर के साथ उसे परिपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ भी प्राप्त होती है । बुद्धि, मन और आयु भी उसे प्राप्त होती है और इन सबसे ऊपर उसके साथ वे पुरातन संस्कार भी रहते है; जिनकी सहायता से वह मानव-जीवन प्राप्त करता है । जैनागम की भाषा मे हम उन्हे कर्म कहते है । मन, वाणी तथा शरीर द्वारा क्षण प्रतिक्षण आत्मा के
स्थानाग, ४८५ ।
उत्तराध्ययन, ३, १ ।
३. " हे पुरुष, तू ही तेरा मित्र है, बाहर क्यो मित्र खोजता है ? अपने को ही वश में रख तो तू सब दुःखो से मुक्त हो जावेगा ।"
- आचाराग, १, ३, ११७, ११८ 1
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