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________________ मन अगशास्त्र के अनुसार मानव अनिन्द्र का वित और ठहरने की गति दो जीव और पद्गल मे है ही, निन्त वाद्य सहायता के बिना नातिनी व्यक्ति नहीं हो सकती, अन नदी पदार्थों का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया गया। आकाश-जो सनी द्रव्यों को अवकाश देताजगे आना हने है। यह पदार्थ अमूर्तिक नया सर्वव्यापी है। उनके दो भंद्र ई-गोकाकाग तथा अलोवाकाश । जहा जीव तपा अजीव पदार्थ मागे जाने है उसे लोकाकाग कहते है । जहाँ ये दोनो पदार्थ नही पाये जाते उसे अलोकाकाम रहते हैं। जैनधर्म के अनुगार दो शाकाग सान नया अलोकाकाग अनन्त है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आदन्टीन समस्त लोग को सात मानते है । ___ काल-जो वस्तु मात्र के परिवर्तन कगने में सहायक है उमे काल द्रव्य कहते है। यद्यपि परिणमन की शक्ति मनी पदार्थी में है किन्तु वाह्य निमित्त के बिना उन शक्ति की व्यक्ति नहीं हो सकती, अन काल द्रव्य का पृथक् अस्तित्व स्वीकार किया गया। काल द्रव्य के दो भेद है--निश्चय काल तथा व्यवहार काल लोकाकाग के प्रत्येक प्रदेश पर पृथक् पृथक काला (काल के अणु स्थित है, इन कालाणुओ को निश्चयकाल कहते है । आपसी व्यवहार के निमित्त स्थिर किए गए समय, आवली, उच्छ्वान आदि व्यवहार काल है । भगवतीसूत्र (व्याख्या प्रप्तिसूत्र) मे व्यवहारकाल के विषय में निम्न प्रकार विस्तृत विवरण मिलता है। ___ आकाग के एक प्रदेश में स्थित पुद्गल परमाणु मदगति से जितनी देर मे उस प्रदेश से लगे हुए पास के दूसरे प्रदेश पर पहुंचता है उसे "समय" कहते है। असख्यात समयो का समुदाय एक "आवलिका" कहलाती है। असख्यात आवलिकाओ का एक "उच्छ्वास" और उतनी ही आवलिकाओ का एक "नि श्वास" होता है। समक्त और १ "प्रोफेसर घामीराम ने धर्म द्रव्य की तुलना आधुनिक विज्ञान के "ईयर" नामक तत्त्व से तथा अधर्म द्रव्य की तुलना "सर आइजक न्यूटन" के "आमर्पण सिद्धान्त" से की है।" काममोलोजी ओल्ड एण्ड न्यू, पृ० ४४. २ काममोलोजी ओल्ड एण्ड न्यू, पृ० ५७. ३ व्याख्याप्रनप्ति (अभयदेववृत्ति) ६, ७, २४६ पृ० ५००-५०२ ४ जैन-धर्म पृ० ९७
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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