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जैन-अंगशास्त्र के अनुमार मानव व्यक्तित्व का विकास ही मूल पदार्थ है, क्योकि इन दोनो को लेकर ही अन्य पदार्थो की कल्पना हुई है।
जीव का लक्षण चैतन्य है। जिसमे चेतना गुण-जानने, देखने, अनुभव करने की शक्ति पाई जाती है, वही जीव है । साख्य भी चेतना को पुरुष का स्वरूप मानता है।' ज्ञान और दर्शन-ये जीव के दो विशिष्ट गुण है। प्रत्येक सचेतन प्राणी अपने समक्ष उपस्थित वस्तु का प्रथम दर्शन करता है, और उसके पश्चात् ज्ञान । दर्शन, ज्ञान का पूर्व रूप है। इस प्रकार ज्ञान तथा दर्शनरूप चैतन्य से युक्त प्राणी ही जीव सजा को प्राप्त करता है ।
जीव के भेद-ससार तथा मुक्ति की अपेक्षा जीव के दो भेद किए गए है, सिद्ध तथा असिद्ध । सिद्ध वे जीव है जो कर्मों का पूर्ण विनाग करके ससार को छोडकर मुक्तिगामी हो चुके है और असिद्ध वे है जो अभी कर्मवधन के कारण ससार मे पडे हुए हैं। इन्हे क्रमग अससारसमापन्नक तथा ससारसमापन्नक कहा गया है।४ सिद्ध जीवो मे तो कोई भेद होता नही है, क्योकि सभी समान गुण-धर्म वाले होते है।
गति-ससारी जीव जिन-जिन अवस्थाओ मे निरन्तर गमन (भ्रमण) करता है वे गति कहलाती है । गति चार है-१ नरकगति, २ तिर्यचगति, ३ मनुष्य गति, तथा ४. देवगति ।" गति की दृष्टि से ससारी जीव के ४ भेद किए गए है-१ नारकी, २ तिर्यच, ३ मनुष्य तथा ४ देव ।
पृथ्वी के नीचे सात नरक है, उनमे जो जीव निवास करते है, वे नारकी कहलाते है । स्वर्गो मे जो निवास करते है वे देव है। ८ जो
१ साख्यकारिका, ___ २ स्थानाग, १०४
३ वही, १०१ ४ वही, ५७ ५ वही, २६७ ६ वही, ३६५, २९४ ७ स्थानाग, ५४६, ८ वही, २५८,