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१. यह श्लोक निम्नलिखित थाभूमि कामगवि ! स्वगोमयरसरासिञ्च रत्नाकरा:
मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमडुप ! त्वं पूर्णकुंभीभव । धृत्वा कल्पतरो दलानि सरलदिग्वारणास्तोरणा
न्याधत्त स्वकर विजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः ।। २. ग्रंथकार ने 'विवेक' के उद्देश्य को निम्न श्लोक में स्पष्ट किया है
विवरीतु क्वचिद् दृब्धं नवं संदभितुं क्वचित् । काव्यानुशासनस्यायं विवेकः प्रवितन्यते ।।
-काव्यानुशासन, अध्याय १,१०१ ३. काव्यानुशासन के अनुसार कथा के इन विभिन्न रूपों का स्वरूप इस प्रकार है(क) उपाख्यान-- किसी प्रबन्ध के मध्य में अन्य के प्रबोधन के लिए कही गयी कथा,
जैसे नलोपख्यान । (ख) आख्यान- एक ही ग्रंथिक द्वारा अभिनय, पाठ एवं गायन के साथ कही गई
कथा, जैसे गोविन्दाख्यान (ग) निदर्शन- पक्षियों या पक्षिभिन्न प्राणियों के कार्यों से कर्तव्य अकर्तव्य का
. ज्ञान कराने वाली कथा, जैसे पंचतंत्र, कुट्टनीमत आदि । (घ) प्रविह लिका—जिस कथा में प्रधान के विषय में दो व्यक्तियों का विवाद हो तथा
जिसका अर्धभाग प्राकृत में रचित हो, जैसे चेटक आदि । (ङ) मन्थल्लिका—पैशाची व महाराष्ट्री भाषा में रचित क्षुद्र कथा जैसे गोरोचना,
अनंगवती । अथवा जिस कथा में पुरोहित, अमात्य, तापस आदि
की असफलता का उपहास किया गया हो। (च) मणिकुल्या-जिस कथा में वस्तु पहले न लक्षित हो अपितु बाद में प्रकट हो,
जैसे मत्स्यहसित। - (छ) परिकथा- धर्म आदि पुरुषार्थों में से किसी एक विषय में नाना प्रकार से कहे
गये अनन्त वृत्तान्तों व वर्णनों से युक्त कथा, जैसे शूद्रक कथा आदि । खण्डकथा- अन्य ग्रंथों में प्रसिद्ध इतिवृत्त का जिस कथा में मध्य या उपान्त
भाग से वर्णन किया गया हो, जैसे इन्दुमति। (ज) सकलकथा जिसम फलप्राप्तिपर्यन्त समस्त वृत्तांत वणित हों, जैसे
समरादित्य। (ञ) उपकथा- किसी प्रसिद्ध कथा में से एक ही चरित्र का वर्णन करने वाली
कथा । (ट) बृहत्कथा--- लम्भों से अंकित तथा अद्भुत अर्थ वाली कथा जैसे नरवाहनदत्त
___ का चरित। ४. द्रष्टव्य प० २८८-८६ (तृतीय संशोधित संस्करण, दिल्ली, १९६१) ५. द्रष्टव्य प० १८६ की पादटिप्पणी (द्वितीय संशोधित संस्करण, कलकत्ता, १९६१) ६. घनमनैकान्तिकम्, व्यवहारकोशलं शास्त्रेभ्योऽप्यनर्थ निवारणं प्रकारान्तरेणापीति न
काव्यप्रयोजनतयास्माभिरुक्तम् ।-काव्यानुशासन, १.३ की वृत्ति ७. द्रष्टव्य वही, १.७ व वृत्ति, पृ० ५ ८. चकारो निरलंकारयोरपि शब्दार्थयो: क्वचित्काव्यत्वख्यापनार्थः ।
-वही १.११ की वृत्ति, पृ० ३३
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आचार्य हेमचन्द्र और उनका काव्यानुशासन : ८७