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आज के साहित्य - बहुल युग में कोई भी नयी कृति तभी स्थान पा सकती है, जब उसमें कुछ मौलिकता हो । मौलिक चिंतन, मौलिक स्थापना और अभिव्यंजना की शैली में मौलिकता न हो तो सामान्य साहित्य भी प्रबुद्ध समाज पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ सकता। ऐसी स्थिति में शोध - साहित्य से तो विशेष रूप से यह अपेक्षा की जाती है, वहां चिंतन और स्थापनाओं की मौलिक स्फुरणा हो । जिस शोध- साहित्य से प्रज्ञा को समाधान न मिले और न ही मिले चिंतन को नया निखार, वह संकलन तो हो सकता है पर उसे शोध कहने से आत्मतोष पुष्ट नहीं होता ।
प्रस्तुत पुस्तक 'जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान' जैन तत्त्व विद्या के जिज्ञासुओं को अपनी नई स्थापनाओं से परिचित कराकर लोक-चेतना को उस ओर मोड़ने में सक्षम हो सकी तो यह जैन विद्वानों की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी । सांस्कृतिक चेतना का विकास सामाजिक और आर्थिक चेतना के विकास से भी अधिक श्रमसाध्य कार्य है । इस कार्य की निष्पत्ति में रूढ़ धारणाओं और कुसंस्कारों को बदलकर नये मूल्यों, विचारों और धारणाओं को स्थिरीकरण देना जरूरी है । सुधी पाठक जैन विद्या के सांस्कृतिक अवदान से अवगत होकर अपनी प्रज्ञा और चेतना को समाधान देते रहें, यह अपेक्षा है ।
लाडनूं
३१ जनवरी, १६७६
- आचार्य तुलसी