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हेमचन्द्र ने संक्षिप्त या विस्तृत वृत्तियां व टीकाएं भी लिखी हैं । यह समग्र वाङमय उनकी बहुमुखी प्रज्ञा एवं सर्वग्राहिणी विद्वत्ता का ज्वलन्त प्रमाण है। ___'काव्यानुशासन' आचार्य हेमचन्द्र की अलंकारशास्त्र विषयक एकमात्र कृति है। जैन आचार्यों ने अलंकारशास्त्र पर जो ग्रंथ लिखे हैं उनमें यह कृति प्रमुख कही जा सकती है। यह अलंकारशास्त्र के इतिहास के उस युग की देन है जब रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि विभिन्न सिद्धांतों का पूर्ण विकास व विवेचन हो चुका था तथा स्वतंत्र व मौलिक काव्य-चिंतन की परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी थी। आनंदवर्धन ने ध्वनिसिद्धांत के रूप में काव्य का एक ऐसा सर्वांगीण सिद्धांत प्रस्तुत किया था जिसमें अलंकार, गुण, दोष, रीति, रस आदि विभिन्न तत्त्व काव्य की एक संपूर्ण अवधारणा में परस्पर अंगागिभाव से संतुलित व समन्वित हो गये थे । यद्यपि कुन्तक व महिमभट्ट ने आनंदवर्धन के उक्त प्रयास को चुनौती दी थी पर ध्वनिवादी काव्य-दृष्टि इतने व्यापक, गंभीर व सुदृढ़ चिंतन पर आधारित थी कि यह चुनौती निरर्थक ही सिद्ध हुई । मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में ध्वनि के रहे-सहे विरोध को भी अपने अकाट्य तर्कों द्वारा इस तरह निरस्त कर दिया कि फिर आगे उसे सिर उठाने का साहस नहीं हुआ। ध्वनिवाद की इस अकाट्य स्थापना व सर्वमान्यता का एक परिणाम यह हुआ कि अलंकारशास्त्र के क्षेत्र में मौलिक चिंतन व स्वतंत्र उद्भावनाओं का युग समाप्त-सा हो गया तथा आलंकारिकों का एकमात्र कार्य यह रह गया कि वे ध्व निवाद की समन्वयवादी दष्टि के अनुसार काव्य के स्वरूप व विभिन्न तत्त्वों का एकत्र परिचय देने वाले संग्रह ग्रंथ या पाठ्यपुस्तकों का प्रणयन करें। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयास मम्मट (११वीं सदी का उत्तरार्द्ध) ने किया तथा उन्हें इस कार्य में इतनी सफलता मिली कि अलंकारशास्त्र के परवर्ती लेखकों ने उनके द्वारा प्रदर्शित सरणि के अनुगमन में ही अपनी कृतार्थता मानी। यहां तक कि मम्मट के विरोध का बीड़ा उठाकर चलनेवाले विश्वनाथ को भी अन्तत: उन्हीं के चरण-चिह्वों पर चलना पड़ा । कुछ लेखकों ने अलंकारशास्त्र के प्राचीन संप्रदायों के अनुगमन का प्रयत्न किया पर उनकी संख्या नगण्य ही रही। सामान्य प्रवृत्ति काव्य की ध्वनिवादी संकल्पना को स्वीकार करने की ही रही। आचार्य हेमचन्द्र का काव्यानुशासन अलंकारशास्त्र के उपसंहारकाल की इसी सामान्यप्रवृत्ति का परिचायक है । निश्चय ही उनका ध्येय किसी नूतन काव्यसिद्धांत का प्रतिपादन नहीं था। उनके समक्ष अलंकारशास्त्र की एक समृद्ध व प्रौढ परंपरा थी जिसमें मौलिक योगदान के लिए बहुत कम अवकाश रह गया था। उनका उद्देश्य तो अलंकारशास्त्र की उक्त परंपरा को जो बहुत-कुछ रूढिबद्ध व स्थिर हो चुकी थी, सरल व सुग्राह्य शैली में पुनर्निबद्ध कर इस विषय के प्रारंभिक व प्रौढ उभयविध अध्येताओं की सहायता करना था। इसमें संदेह नहीं कि यह कार्य उन्होंने बड़ी योग्यता व कुशलता के साथ किया।
७८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान