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आचार्य हेमचन्द्र और उनका काव्यानुशासन
डॉ० मूलचन्द्र पाठक
आचार्य हेमचंद्र सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी एक युगप्रवर्तक महापुरुष थे। जैन धर्म और जैन विद्याओं के तो वे एक महान् आचार्य व प्रकांड पंडित थे ही, ब्राह्मणों के कहे जाने वाले शास्त्रों व विद्याओं में भी वे पारंगत थे । अगाध, व्यापक व सर्वतोगामी पांडित्य के साथ-साथ वे उच्चकोटि के कवि भी थे। उनका द्वयाश्रय काव्य उनके सहृदयत्व व शास्त्रीय वैदुष्य का मणिकांचन योग प्रस्तुत करता है। उद्भट विद्वान् व सहृदय कवि होने के साथ ही आचार्य हेमचन्द्र एक उदारमना सन्त, प्रगतिशील समाजसुधारक, उत्साही धर्मप्रचारक एवं प्रभावशाली उपदेशक भी थे। गुजरात प्रांत में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में उनका योगदान किसी भी अन्य आचार्य से अधिक रहा। गुजरात के तत्कालीन शासक सिद्धराज जयसिंह व कुमारपाल उनका अत्यधिक सम्मान करते थे। यहां तक कि कुमारपाल उनके व्यक्तिगत संपर्क व उपदेशों के प्रभाव से जैन धर्म का अनुयायी हो गया था। गुजरात के समकालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन पर हेमचन्द्र का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने गुजरात में विद्यानुशीलन, शास्त्राभ्यास व साहित्य-साधना का एक उच्चस्तरीय वातावरण बनाने में अपूर्व योगदान किया। उनके पहले का गुजरात पांडित्य व साहित्यसर्जना के क्षेत्र में भारत के इतर प्रांतों से पिछड़ा हुआ था। हेमचंद्र ने अपने युग में प्रचलित प्रायः सभी प्रधान शास्त्रों का मंथन कर स्वयं विविध विषयों पर सरल व सुबोध शैली में अनेक विश्वकोषात्मक ग्रंथों की रचना की तथा विद्वान् व कर्मठ शिष्यों की मंडली तैयार करके गुजरात में संस्कृत-साहित्य-विशेष रूप से शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन व प्रणयन की एक सशक्त परंपरा का सूत्रपात किया।
सौभाग्य से इस महान् आचार्य, सन्त, साहित्यप्रणेता व धर्मोपदेशक की जीवन विषयक सामग्री अनेक समकालीन व परवर्ती ग्रंथों में सुलभ है। इन ग्रंथों में सोमप्रभसूरिरचित कुमारपालप्रतिबोध (संवत् १२४१), प्रभाचंद्रसूरिकृत प्रभावक
७६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान