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________________ 'प्राणावाय' साहित्य 'प्राणावाय' संबंधी प्राचीन साहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। जो कुछ ग्रंथ मिलते हैं, वे बहुत बाद के हैं और उनमें प्राणावाय संज्ञक आगमांग का वर्णन नहीं मिलता। केवल एक ग्रंथ उपलब्ध है, जो दक्षिण (कर्णाटक ) में प्राप्त हुआ है, उसमें 'प्राणावाय' की परंपरा निर्दिष्ट है। वह ग्रंथ भी बहुत प्राचीन (ई० आठवीं शती) है। उसका नाम 'कल्याणकारक' है । वह संस्कृत पद्यों में रचा गया है और रचनाकार का नाम आचार्य उग्रादित्य है। . उग्रादित्य ने कल्याणकारक के लिए आधारभूत कतिपय ग्रंथों और उनके ग्रंथकारों का नामतः परिगणन कराया है। परंतु ये सभी ग्रंथ अब अनुपलब्ध हैं। वास्तव में ये बहुत प्राचीन थे और प्राणावाय के मुख्य प्रतिपादक थे। ऐसा प्रतीत होता है कि आयुर्वेद के आठ अंगों पर उस समय प्राणावाय-परंपरा के अंतर्गत पृथक्पृथक् अंग की विशिष्ट कृतियां निर्मित हो चुकी थीं। जैसे, उग्रादित्य के अनुसार--- "पूज्यपाद ने शालाक्य संबंधी, पात्र स्वामी ने शल्यतंत्र पर, सिद्धसेन ने विप और उग्र ग्रह शमन-विधि पर, दशरथ गुरु ने कायचिकित्सा पर, मेघनाद ने बाल-रोगों पर और सिंहनाद ने रसायन व बलवर्धक द्रव्यों (वाजीकरण) पर ग्रंथ-रचना की थी।" __ आयुर्वेद में भी इसी प्रकार पृथक्-पृथक् अंग पर विभिन्न तंत्रग्रंथों के प्रणयन का उल्लेख मिलता है, जो उपर्युक्त प्राणावाय-साहित्य परंपरा के समान ही था। बाद में समंतभद्र ने आठों अंगों की विषय सामग्री को एकत्र और सुनिबंधित कर अष्टांग आयुर्वेद संबंधी किसी महान् ग्रंथ की रचना की। यही प्राणावाय के अध्ययन-अध्यापन के लिए मध्ययुग में एक मुख्य स्रोत बना रहा हो, क्योंकि उग्रादित्य ने अपने गुरु श्री नंदी से इसी का अध्ययन कर इसी के आधार पर संक्षेप से 'कल्याणकारक' नामक ग्रंथ की रचना की थी। समंतभद्र की वह महत्त्वपूर्ण रचना अब अनुपलब्ध है। आयुर्वेद में भी समंतभद्र जैसा ही कार्य वाग्भट ने 'अष्टांगसंग्रह' और 'अष्टांगहृदय' नामक ग्रंथों की रचना करके किया था। वाग्भट ने आठ अंगों के विभिन्न १. "शालाक्यं पूज्यपादप्रकटितमधिकं शल्यतंत्रं च पात्रस्वामिप्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धः । काये या सा चिकित्सा दशरथगुरुभिर्मेघनादैः शिशूनां वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादर्मुनीन्द्रः ॥" (क० का०, प० २०, श्लोक ८५) २. "अष्टांगमप्यखिलमन्त्र समंतभद्रः प्रोक्तं सविस्तरमथो विभवः विशेषात् । संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ॥" (क० का०, प० २०, श्लो० ८६) ७० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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