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जैनाचार्यों ने स्वानुभूत एवं प्रायोगिक प्रत्यक्षीकृत प्रयोगों और साधनों द्वारा रोग-मुक्ति के उपाय बताये हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए परीक्षणोपरांत सफल सिद्ध हुए प्रयोगों व उपायों को उन्होंने लिपिवद्ध कर दिया। जैन धर्म के श्वेतांबर और दिगंबर—दोनों ही संप्रदायों के आचार्यों ने इस कार्य में महान् योगदान किया है।
८. जैनाचार्यों ने अपने धार्मिक सिद्धांतानुसार ही मुख्य रूप से चिकित्साशास्त्र का प्रतिपादन किया है । जैसे, रात्रि-भोजन-निषेध, मद्य-मधु-मांस का वर्जन आदि । अहिंसा का आपत्काल में भी पूर्ण विचार रखा है। इसका यही एकमात्र कारण है कि, मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य पारमार्थिक स्वास्थ्य प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना है।
९. शरीर को स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट और निरोग रखकर न केवल ऐहिक भोग (इन्द्रियसुख) भोगना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य के माध्यम से आत्मिक स्वास्थ्य व सुख प्राप्त करना ही जैनाचार्यों का प्रधान उद्देश्य था। इसके लिए उन्होंने भक्ष्याभक्ष्य, सेकासेक आदि पदार्थों का उपदेश दिया है।
जैन विद्वानों द्वारा मुख्यतया निम्न संतलों पर वैद्यक ग्रंथों का प्रणयन हुआ। १. जैन यति-मुनियों द्वारा ऐच्छिक रूप से ग्रंथ-प्रणयन।
२. जैन यति-मुनियों द्वारा किसी राजा अथवा समाज के प्रतिष्ठित और धनी श्रेष्ठी पुरुष की प्रेरणा या आज्ञा से ग्रंथ-प्रणयन ।
३. स्वतंत्र जैन विद्वानों और वैद्यों द्वारा ग्रंथ-प्रणयन ।
जैन-वैद्यक ग्रंथों के अपने सर्वेक्षण से मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हं, उसके निम्न तीन पहलू हैं
१. जैन विद्वानों द्वारा निर्मित वैद्यक साहित्य अधिकांश में मध्ययुग (ई० सन् सातवीं शती से उन्नीसवीं शती तक) में निर्मित हुआ है।
२. उपलब्ध संपूर्ण वैद्यक साहित्य से तुलना करें तो जैनों द्वारा निर्मित साहित्य उसके एक तृतीयांश से भी अधिक है।
३. अधिकांश जैन वैद्यक ग्रंथों का प्रणयन पश्चिमी भारत के क्षेत्रों, जैसे पंजाब, राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और कर्णाटक में हुआ है। कुछ माने में, राजस्थान को इस संदर्भ में अग्रणी होने का गौरव व श्रेय प्राप्त है। राजस्थान में निर्मित अनेक जैन-वैद्यक ग्रंथों, जैसे वैद्यवल्लभ (हस्तिरुचि कृत), योगचितामणि (हर्षकीतिसूरि कृत) आदि का वैद्य जगत् में बाहुल्येन प्रचार-प्रसार रहा है।
सांस्कृतिक दृष्टि से जैन विद्वानों और यति-मुनियों द्वारा चिकित्सा-कार्य और चिकित्सा-ग्रंथ प्रणयन द्वारा तथा अनेक उदारमना जैन श्रेष्ठियों द्वारा विभिन्न स्थानों पर धर्मार्थ (निःशुल्क) चिकित्सालय व औषधशालाएं या पुण्यशालाएं
६८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान