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________________ सारी सामग्रियों का उपयोग कर अपने शब्दानुशासनों को पूर्ण एवं समयानुकूल बनाया। १४. पाणिनीय तन्त्रकारों ने शब्दों का अनुशासन करते समय प्रत्ययों, आदेशों तथा आगम आदि में जो अनुबन्ध लगाये हैं, उनका सम्बन्ध वैदिक स्वर प्रक्रिया के साथ भी जुटाए रखा है जिसके कारण श्रेण्य संस्कृत भाषा सम्बन्धी अनुशासन को समझने में क्लेश आ जाता है। जैन वैयाकरणों ने उन्हीं अनुबन्धों को ग्रहीत किया है, जिनका प्रयोजन तत्काल सिद्ध होता है । अतः स्पष्ट है कि पाणिनीय तन्त्र में भले ही साथ-ही-साथ वैदिक भाषा का भी अनुशासन होता गया, किंतु श्रेण्य संस्कृत का सुबोध अनुशासन जैन वैयाकरणों द्वारा ही हुआ। १५. जैनाचार्यों ने समयानुसारिणी अनुशासन व्यवस्था को अपनाया, फलत: उनके नियमों में सरलता, संक्षिप्तता और वैज्ञानिकता विद्यमान है। १६. संस्कृत भाषा के अनुशासन के साथ प्राकृत भाषा का अनुशासक भी लिखा गया। १७. वाक्य-विचार, रूप-विचार, सम्बन्ध तत्त्व और अर्थ तत्त्व का विश्लेषण, ध्वनितत्त्व, ध्वनि-परिवर्तन के कारण, वर्णागम, वर्णलोप, वर्ण-विपर्यय, अपिश्रुति, स्वरभक्ति समीकरण एवं विषमीकरण सम्बन्धी भाषा-विज्ञान के नियमों का प्रतिपादन । १८. शब्द के कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व की मौलिक उद्भावनाएं। १९, भाषा के विशाल और विराट भंडार का दर्शन । २०. पुरातन और नूतन नियमों का समन्वय २१. प्राचीन गणपाठ, शिक्षासूत्र, परिभाषाओं एवं सूत्रपाठ की परम्पराओं का संरक्षण। संदर्भ-तालिका १. बोपदेव द्वारा विरचित मुग्धबोध । २. प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ के अन्तर्गत 'पाइय साहित्य का सिंहावलोकन' शीर्षक निवन्ध, पृ० ४१६ तथा 'पाइय भाषाओ अने साहित्य', पृ० ५५ । ३. यशस्तिलक चम्पू की श्रुतसागर मूरि टीका में 'प्राकृत-व्याकरणा द्यनेकशास्त्र रचना चंचुना' यह उल्लेख आया है तथा षट्पाहुड की संस्कृत टीका में प्राकृत सूत्रार्थ उद्धृत किये हैं। जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योगदान : ६३
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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