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कारण लोकप्रिय है । जैनाचार्यों ने कन्नड़ का व्याकरण कन्नड़ भाषा में भी लिखा है । कन्नड़ साहित्य और कन्नड़ व्याकरण को समृद्धशाली बनाने का श्रेय जैनाचार्यों को ही है ।
भावसेन का मनोरमा व्याकरण, केशवराज का शब्दमणि व्याकरण, तपागच्छ के आचार्य राजविजयसूरि के शिष्य दानविजय का शब्द-भूषण, मलयगिरि का शब्दानुशासन, दुर्गसिंह का शब्दानुशासन, तपागच्छ के आचार्य विजयनन्दि के शिष्य हेमहंस विजय का 'शब्दार्थक चन्द्रिका' व्याकरण प्रभृति जैन व्याकरण साहित्य की अमूल्य निधियां हैं ।
पूर्ण तलियागच्छ के आचार्य देवनन्द की सिद्ध सारस्वत टीका तथा खरतर गच्छीय हेमचन्द्र उपाध्याय के शिष्य सहजकीर्ति का सिद्ध शब्दार्णव, पुण्यसुन्दर का स्वरवर्णानुक्रम धातुपाठ, धनरत्न के शिष्य नयसुन्दर का रूपरत्नमाला, कल्याणसागर सूरि का लिंग निर्णय, शवरस्वामी का लिंगानुशासन, दुर्गसिंह का लिंगानुशासन तथा जयनन्दसूरि का लिंगानुशासनोद्वार भी व्याकरण-संबंधी ग्रन्थ है । अर्हनन्दी के शिष्य त्रिविक्रम का प्राकृत शब्दानुशासन भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका आधार हेमचन्द्र का प्राकृत शब्दानुशासन ही है ।
इन व्याकरण-ग्रंथों के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने सारस्वत व्याकरण पर कई टीकाएं लिखी हैं । कुछ विद्वान् तो अजितसेन के शिष्य नरेन्द्रसेन को ही इस व्याकरण का रचयिता मानते हैं । युधिष्ठिर मीमांसक ने भी अपने व्याकरण साहित्य के इतिहास में इस ओर संकेत किया है। हमें लगता है कि इसी कारण इस पर अनेक टीकाएं जैनाचार्यों द्वारा निर्मित हुई हैं। नागपुरीय तपागच्छ के आचार्य चन्द्रकीर्ति की सं० १६६४ में लिखी गई इस व्याकरण की प्रसिद्ध टीका है ।
जैन व्याकरण-साहित्य की उपलब्धियां
१. शब्द की अनेकांतात्मकता - अनेक धर्मात्मक होने के कारण स्याद्वाद के द्वारा शब्दों की सिद्धि पर जोर दिया है। जैनेतर वैयाकरण शब्द में वाच्य वाचक संबंध को मानकर भी दोनों को स्वतन्त्र मानते हैं । वाचक के रूप में परिवर्तन हो जाने पर भी वाच्य के रूप में कोई परिवर्तन नहीं मानते । पर जैन शाब्दिकों का मत है कि वाचक में लिंग, संख्या आदि का जो परिवर्तन होता है, वह स्वतन्त्र नहीं है, किंतु अनन्त धर्मात्मक बाह्य वस्तु के अधीन है अर्थात् जिन धर्मों से विशिष्ट वाचक का प्रयोग किया जाता है, वे सब धर्म-वाच्य में रहते हैं ।
२. वैदिक शब्दों का अनुशासन करने वाले पाणिनीय व्याकरण के पंजे से छुड़ाकर लौकिक भाषा के स्वरूप निर्धारण में अधिक-से-अधिक योगदान देने वाले शब्दानुशासनों का निर्माण कर गतिशील भाषा को स्थिर या मृत न बनाकर उसकी गतिशीलता में सहायक हैं ।
जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योगदान : ६१