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प्रकार का दोषारोपण इस पर किया है। परंतु यह सही नहीं है। कुछ विशेष परिस्थितियों में हिंसा करना निषिद्ध नहीं है। दक्षिण भारत के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जहां श्रावकों ने युद्ध किये। इस प्रकार के उदाहरण गुजरात और राजस्थान में भी देखे जा सकते हैं । जैन-धर्म में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। किंतु इसकी सीमाएं भी हैं। अपनी इज्जत, गृहिणी की इज्जत तथा देश की स्वतंत्रता की रक्षा के निमित्त हिंसा के लिए छूट दी गई है। किंतु जब तक हमारे आदर्श ऊंचे नही हैं तब तक हम विशेष अच्छा व्यवहार नहीं कर सकते। इसीलिए अहिंसा विषयक आदर्श जैन-धर्म में सर्वोपरि रखा गया है। यह सच है कि आदर्शों तक पहुंचा नहीं जा सकता किंतु आदर्शों को सामने जरूर रखने चाहिए।
जैन-मंदिरों ने, जैन-साधुओं ने और जन-शास्त्रों ने जैन-धर्म की जागृति को अक्षुण्ण रखा है। जहां तक मैं समझता हूं जैन-धर्म का पालन करना अत्यंत कठिन है। एक सच्चा जैन अपने भगवान् के पास जाकर यह नहीं मांग सकता कि मुझे पुत्र दो या पुत्री दो या और कोई वरदान दो। जैन-तीर्थकर इस प्रकार का कोई काम नहीं करते । यदि कोई जैन ऐसा करते हैं तो उन्होंने जन-धर्म के परमात्मा की धारणा को नहीं समझा है। वे जैन-धर्म के मूलभूत सिद्धांत के विपरीत कार्य कर रहे हैं। जैन-तीर्थकर वीतराग हैं, निष्परिग्रही हैं और कुछ भी नहीं दे सकते। जैन-पूजा का अर्थ है कि पूजक सिद्धों की स्थिति तक पहुंचना चाहता है और इसलिए वह पूजा करता है । जैन-दर्शन में व्यक्ति पूर्णत: स्वतंत्र है। वह अपने शुभाशुभ कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। किंतु दुर्भाग्यवश वहुत से जैन इस बात को भूल बैठे हैं।
जैन-धर्म के मूलाधार तीन सिद्धांत हैं-- अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह। अहिंसा के विषय में पर्याप्त कहा जा चुका है। दर्शन के क्षेत्र में जैनों ने अनेकांत को पुरस्कृत किया है । इसका अर्थ है कि सत्य के अनेक पहलू होते हैं । अत: आदमी को सहिष्णु बनना चाहिए ताकि दूसरे का दृष्टिकोण सम्यक्तया समझा जा सके। यदि अहिंसा सामाजिक आदर्श है तो अनेकांत बौद्धिक क्षेत्र में आदर्श । समाज का सदस्य होने के नाते जैनों से कहा गया है कि वे अपरिग्रह व्रत का पालन करें। अर्थात् आवश्यकतानुसार ही वस्तुओं को संगृहीत करें और अतिरिक्त वस्तुओं का दान कर दें। यह स्वैच्छिक बंधन है। स्वयं जीओ और दूसरों को भी जीने दो। जब आपका मत दूसरों से मेल न खाता हो तो दूसरों के मत को सहानुभूतिपूर्वक सुनो। यह है जैन और जैन-धर्म का प्रभाव भारतीय समाज पर ।
भारतीय परम्परा को जैन विद्या का अवदान : ३३