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उद्योतनसूरि ने लगभग ९३७ ई० में मालवदेश से शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा की थी तथा देवसेन ने धार के पार्श्वनाथ मंदिर में दर्शनसार' ६३३ ई० में पूर्ण किया था । जैन विद्वान अमितगणि, महासेन, धनपाल और धनेश्वर को वाक्पति मुंज ने संरक्षण दिया था।' परीक्षामुख का रचयिता माणिक्यनंदि भी संभवतः इसी समय धार में आवसित थे, जिनके अग्रज पद्मनन्दि, विष्णुनन्दि, वृषभनन्दि, रामनन्दि और त्रैलोक्यनन्दि का उपदेश एवं कर्मक्षेत्र मालवा ही था।' प्रसिद्ध जैनाचार्य प्रभाचंद्र के प्रति परमार भोजदेव ने आदर प्रदर्शित किया था तथा जनविद्वान् धनपाल ने उसके अनुरोध पर तिलकमंजरी की रचना कर सरस्वती विरुद प्राप्त किया था। भोज के शासनकाल में जैन धर्म एवं साहित्य की प्रगति हुई। दुबकुंड के १०८८ ई० के अभिलेख से विदित होता है कि भोज के राजदरबार में वृषभनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित की थी। शेरगढ़ के ११३४ ई० के अभिलेख में नरवर्मन के शासन में नवचैत्य में नेमिनाथ का उत्सव मनाने का विवरण है।' देवपाल ने अपने पुत्र एवं संबंधियों तथा कोषवर्धन की गोष्ठी के साथ रत्नत्रय का प्रतिष्ठा समारोह किया था।
परवर्ती परमार शासकों के राजक्षेत्रों में जैन विद्वानों एवं आचार्यों के द्वारा जैन धर्म की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। धार में निवास करने वाले धरसेन का शिष्य महावीर जैन धर्म की विभिन्न शाखाओं का विद्वान् था तथा परमार शासक विध्यवर्मन पर उसका बहुत प्रभाव विदित होता है। पं० आशाधर मुस्लिम आक्रांताओं के भय से माण्डलगढ़ से ११६२ ई० में धार आए और आचार्य महावीर को प्रणामाञ्जलि से सम्मानित किया था। आशाधर जैन विद्या का प्रकांड पंडित था तथा तेरहवीं शताब्दी के मध्य तक साहित्य-सृजन किया, इन्होंने पांच परमार शासकों-विध्य वर्मन, सुभट वर्मन, अर्जुन वर्मन, देवपाल और जैतुगिदेव का नामोल्लेख किया है। आशाधर की महाकवि बिल्हण ने अत्यंत प्रशंसा की है। बालसरस्वती महाकवि बिल्हण ने आशाधर से काव्यशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी तथा पंडितजी के पिता और पुत्र को अर्जुन वर्मन ने उच्चपद पर नियुक्ति दी थी। आशाधर ने विशाल कीति, अर्हदास, देवचंद्र जैसे विद्वान् शिष्य तैयार किये थे, जिन्होंने उल्लेखनीय जैन साहित्य सृजन के द्वारा जैन धर्म की सेवा की।
जिनपति सूरि ने धार के शांतिनाथ मंदिर में विधिमार्ग की ११९७ ई. में
१. पेटर्सन रिपोर्ट्स संख्यक-४, प्रस्तावना, पृ० ३ २. गुरु गोपालदास वरया स्मृतिग्रंथ, पृ० ५४३ ३. एपिग्राफिया इंडिका, २१, पृ० ८० ४. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३४७ ५. वही, पृ० ३४२
मालवा में जैन धर्म का ऐतिहासिक सर्वेक्षण : १७६