________________
के विभिन्न क्षेत्रों में ये फैले हुए हैं। बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में इनके बड़े-बड़े उद्योग-प्रतिष्ठान हैं । अपने आर्थिक संगठनों द्वारा इन्होंने राष्ट्रीय उत्पादन तो बढ़ाया ही है, देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जन करने में भी इनकी विशेष भूमिका रही है । जैन संस्कारों के कारण मर्यादा से अधिक आय का उपयोग वे सार्वजनिक स्तर के कल्याण-कार्यों में करते रहे हैं।
राजनीतिक चेतना के विकास में भी जैनियों का सक्रिय योग रहा है । भामाशाह की परम्परा को निभाते हुए कइयों ने राष्ट्रीय रक्षा कोष में पुष्कल राशि समर्पित की है। स्वतंत्रता से पूर्व देशी रियासतों में कई जैन श्रावक राज्यों के दीवान और सेनापति जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य करते रहे हैं। स्वतंत्रतासंग्राम में क्षेत्रीय आन्दोलनों का नेतृत्व भी उन्होंने संभाला है। अहिंसा, सत्याग्रह, भूमिदान, सम्पत्तिदान, भूमि-सीमाबंदी, आयकर प्रणाली, धर्म-निरपेक्षता जैसे वर्तमान सिद्धान्तों और कार्यक्रमों में जैन-दर्शन की भावधारा न्यूनाधिक रूप से प्रेरक कारण रही है।
प्राचीन साहित्य के संरक्षक के रूप में जैन धर्म की विशेष भूमिका रही है। जैन साधुओं ने न केवल मौलिक साहित्य की सर्जना की वरन् जीर्ण-शीर्ण दुर्लभ ग्रंथों का प्रतिलेखन कर उनकी रक्षा की और स्थान-स्थान पर ग्रंथ-भंडारों की स्थापना कर इस अमूल्य निधि को सुरक्षित रखा। राजस्थान और गुजरात के ज्ञान भंडार इस दृष्टि से राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन का कार्य भी जैन शोध संस्थानों ने अब अपने हाथ में लिया है । जैन पत्र-पत्रिकाओं द्वारा भी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ और सदाचारयुक्त बनाने की दिशा में बड़ी प्रेरणा और शक्ति मिलती रही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैन धर्म की दृष्टि राष्ट्र के सर्वांगीण विकास पर रही है। उसने मानव-जीवन की सफलता को ही मुख्य नहीं माना, उसका बल रहा उसकी सार्थकता और आत्मशुद्धि पर ।
१६६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान