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नेमिचन्द्र आचार्य के अन्य ग्रंथ द्रव्य संग्रह, लब्धिसार एवं त्रिलोकसार हैं। वास्तव में उन्होंने लब्धिसार ग्रंथ ही लिखा है जो लब्धिसार-क्षपणसार के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। क्षपणसार की प्रशस्ति के अनुसार इसे माधवचन्द्र विद्य ने बाहुबलि की प्रार्थना से लिखकर ई० सन् १२०३ में पूर्ण किया था। लब्धिसार ग्रंथ चामुंडराय के प्रश्न के निमित्त से नेमिचन्द्र आचार्य निर्मित किया जो कषाय प्राभृत नामक जयधवल के सिद्धान्त के पन्द्रह अधिकारों में से पश्चिम स्कंध नाम के पंद्रहवें अधिकार के अभिप्राय से गभित है। इसकी संस्कृत टीका उपरामचरित्र के अधिकार तक के शववर्णीकृत मिलती है, आगे के क्षयणधिकार की नहीं। इसकी भाषा टीका पंडित टोडरमल ने बनाई है । उन्होंने लिखा है कि उपशय-चरित्र तक तो संस्कृत टीका के अनुसार व्याख्यान किया गया है। किंतु कर्मों के क्षयणाधिकार के गाथाओं का व्याख्यान माधवचंद्र विद्य कृत संस्कृत गद्य रूप क्षपणसार के अनुसार अभिप्राय शामिल कर किया गया है। इसीलिए इस ग्रंथ का नाम लब्धिसार क्षपणसार है। इस ग्रंथ पर गणितीय शोध करने के पूर्व गोम्मटसार के गणित में सक्षम होना आवश्यक है। जीव के गुणस्थान एवं मार्गणास्थान सम्बन्धी संख्यात्मक, असंख्यात्मक एवं अनन्तात्मक राशियों के बोध के पश्चात् उनकी भाव
शियां तथा कर्म राशियां जानना आवश्यक है । गोम्मटसार का गणित हम लोगों न सुगम्य अनुभव किया है, जहां बंध के उदय, सत्त्व निर्जरा आदि की गणितीय प्रक्रियाएं बोधगम्य हैं। किंतु लब्धिसार और क्षपणसार के गणित की गहराई कुछ और है, जहां रेखिकीय आकृतियां और कर्म की प्रक्रियात्मक राशियां अधिक जटिल-सी दृष्टिगत होती हैं ।
इसकी रहस्यात्मक गणितीय शोध में बीस-पचीस वर्ष सहज ही बीत जायेंगे, ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि जिन बुनियादों पर यह लब्धि और क्षपणा के गणितीय सिद्धांत, सम्वन्ध आदि दिये गये है उनको समझाने वाला कोई दृष्टिगत नहीं होता है। जिज्ञासा यह है कि किन प्रयोगों के आधार पर ये सिद्धान्त बनाये गए क्या वे प्रयोग अब दिखलाये जा सकते हैं अथवा स्वयं अनुभूत किए जा सकते हैं ? इस हेतु कुछ सीमा तक क्वांटम यांत्रिकी का स्पेक्ट्रल सिद्धांत और आटोमेटा का मिद्धांत हमें सहायता कर सकता है, क्योंकि आटोमेटा (सिस्टम सिद्धांत) में आस्रव (input), सत्त्व (state) तथा उदयनिर्जरा (output) के सिद्धांत राशि सिद्धांत पर आधारित कर विगत बीस वर्षों में चंद्र-यात्रा जैसे प्रयोगों को सफल बनाकर उच्चतम श्रेणी की विज्ञान पद्धति को जन्म दे चुके हैं। नियंत्रण (control)आदि सिद्धान्त जो भौतिक रूप में उभर चुके हैं वे जैनाचार्यों ने प्रायः २०००-२५०० वर्ष पूर्व गुणस्थान आदि रूप में जीव-भौतिकी रूप को सर्वोत्कृष्ट-विज्ञान की उच्चतम पहुंच में निखार दिया था। इसे समझने हेतु अब टीम-वर्क की नितान्त आवश्यकता है, जहां गणित के उच्चतम साधक और साधन उपस्थित हों वहां यह
जैनाचार्यों का गणित को योगदान : १४३