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________________ रस से कर्मोदय को करने के इच्छुक वे पुरुष नियम से मिथ्यादृष्टि हैं और अपने आत्मा का घात करने वाले हैं। उक्त कथनों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों को यह कदापि स्वीकार्य नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को मार या बचा सकता है, अथवा दुःखी या सुखी कर सकता है । जब कोई किसी को मार ही नहीं सकता और मरते को बचा नहीं सकता है तो फिर “मारने का नाम हिंसा और बचाने का नाम अहिंसा" यह कहना क्या अर्थ रखता है ? द्रव्य स्वभाव से आत्मा की अमरता एवं पर्याय के परिवर्तन में स्वयं के उपादान एवं कर्मोदय को निमित्त स्वीकार कर लेने के बाद एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी का वध और रक्षा करने की बात में कितनी सच्चाई रह जाती है ? यह एक सोचने की बात है। अत: यह कहा जा सकता है कि न मरने का नाम हिंसा है, न मारने का। इसी प्रकार न जीने का नाम अहिंसा है, न जिलाने का। वस्तुतः हिंसा-अहिंसा का संबंध परजीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख से न होकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष-मोह परिणामों से है। परजीवों के मरने-मारने का नाम हिंसा नहीं, वरन् मारने के भाव का नाम हिंसा है। जैन शास्त्रों में जो परजीवों के मारने, सताने आदि को भी हिंसा कहा गया है, उसे व्यवहार हिंसा के अर्थ में समझना चाहिए। हिंसा के दो भेद करके भी समझाया गया है --भावहिंसा और द्रव्यहिंसा। रागादि भावों के उत्पन्न होने पर आत्मा के उपयोग की शुद्धता (शुद्धोपयोग) का घात होना भावहिंसा है और रागादि भाव है निमित्त जिसमें ऐसे अपने और पराये द्रव्यप्राणों का घात होना द्रव्यहिंसा है। यदि कोई व्यक्ति राग-द्वेषादि भाव न करे तथा योग्यतम आचरण रखे किंतु सावधानी रखने पर भी यदि उसके निमित्त से परजीव का घात हो जाए तो भी हिंसा नहीं है। इसके विपरीत कोई जीव रागादि रूप प्रवर्ते, आत्मा में असावधान रहे, यदि उसके निमित्त से परजीवों का घात न भी हो, तो भी वह हिंसक है। क्योंकि हिंसा का मूल कारण रागादि भावरूप प्रमाद परिणति है, परजीवों का जीवन-मरण नहीं। यथा--- सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः । हिंसायतननिवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥४६।।' यद्यपि परवस्तु के कारण रंचमान भी हिंसा नहीं होती है तथापि परिणामों की शुद्धि के लिए हिंसा के स्थान परिग्रहादि को छोड़ देना चाहिए। क्योंकि जीव चाहे मरे या न मरे अयत्नाचार (अनर्गल) प्रवृत्तिवालों को तो बंध होता ही है। कहा भी है१. पुरुषार्थसिद्धय पाय : आचार्य अमृतचन्द्र, प्रलोक ४६ , जैन दर्शन में अहिंसा : ११५
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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