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यहां एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि क्या फिर जीवों का मरना-मारना हिंसा नहीं है और उनकी रक्षा करना अहिंसा नहीं इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व हमें जीवन और मरण के स्वरूप के विषय में विचार करना होगा ।
'मरणं प्रकृति शरीरिणां' की सूक्ति के अनुसार यह एक स्थापित सत्य है कि जो जन्म लेता है वह एक न एक दिन मरता अवश्य है। शरीरधारी अमर नहीं है । समय आने पर या तो वह दूसरे प्राणी द्वारा मार डाला जाता है या स्वयं मर जाता है । अत: यदि मृत्यु को हिंसा मानें तो कभी भी हिंसा की समाप्ति नहीं होगी तथा यदि मरने का नाम हिंसा हो तो जीने का नाम अहिंसा होगा । लोक में भी यथासमय बिना बाह्य कारण के होने वाली मृत्यु को हिंसा नहीं कहा जाता है और न सहज जीवन को अहिंसा ही । इसी प्रकार बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक कारणों से भी हज़ारों प्राणी मर जाते हैं किंतु उसे भी हिंसा के अन्तर्गत नहीं लिया जाता है, अतः मरना हिंसा और जीवन तो अहिंसा नहीं हुआ। जहां तक मारने और बचाने की बात है, उसके संबंध में आचार्य कुन्दकुन्द के निम्नलिखित कथनों की ओर ध्यान देना होगा
"जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्ते हि । सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो ।। २४७ ।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउंण हरेसि तुमं कहते मरणं कयं तेसि ।। २४८ ।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहि, पण्णत्तं । आउ णहरंति तुहं कह ते मरणं कथं तेहि ॥ २४६ ॥ जो मणदि जीवेमिय जीविज्जामि य परेहिं सत्ते हि । सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विदरीदो ।। २५० ।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू ।
आउंच ण देसि तुमं कहं तए जीवियं कयं तेसि ।। २५१ ।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू ।
आउं चणदिति तुहं कहं णु ते जीवियं कयं तेहि ।। २५२ ।। ""
जो यह मानता है कि मैं परजीवों को मारता हूं और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है
जीवों का मरण आयु कर्म के क्षय से होता है, ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है । तुम परजीवों के आयुकर्म को तो हरते नहीं हो, फिर तुमने उनका मरण कैसे किया ?
जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है, ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है, परजीव तेरे आयुकर्म को तो हरते नहीं हैं तो उन्होंने तेरा मरण कैसे किया ?
१. समयसार -- आचार्य कुन्दकुन्द — गाथा २४७ - २५२
जैन दर्शन में अहिंसा : ११३