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के प्रथम हरिभद्र सूरि की रचना होना निश्चित हो जाता है।
गत वर्ष जो बडगच्छीय प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ-संग्रह को हमने अपने ग्रंथालय में विशेष प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किया था उनमें आचार्य हरिभद्र का भी एक अज्ञात ग्रंथ भी प्राप्त हुआ। इससे हमें बड़ी ही प्रसन्नता हुई और उसी का संक्षिप्त विवरण यहां दिया जा रहा है।
इस ग्रंथ का नाम है 'उपसर्गहर स्तव प्रबंध' । १६५ संस्कृत श्लोकों वाली इस रचना की प्रति ६ पत्रों की है और सत्रहवीं शताब्दी की लिखी हुई है।
पहले जिन युगप्रधान आचार्य भद्रबादु के उवसग्गहरं स्तोत्र का उल्लेख किया गया है, उसी की व्याख्या या महात्मय की कथा के रूप में आचार्य हरिभद्र की प्रस्तुत प्राप्त रचना है। अभी तक इस रचना का कहीं भी उल्लेख किया गया, जानने में नहीं आया । अत: सर्वप्रथम इस अज्ञात और महत्त्वपूर्ण रचना का परिचय यहीं पाठकों को दिया जा रहा है। इस रचना के १०६वें श्लोक की एक पंक्ति प्रति के लेखक से लिखने में छूट गयी है अतः संपादन के लिए मूल प्रति की आवश्यकता
_ 'उवसग्गहरं स्तव' भगवान् पार्श्वनाथ से सम्बन्धित प्राकृत भाषा में रची हुई पांच गाथाओं की रचना है। यद्यपि इस स्तोत्र की एक गाथा (छठी) रचयिता भद्रबाहु ने स्वयं भंडार अर्थात् गुप्त कर दी, ऐसा प्रवाद है। पर आचार्य हरिभद्र की इस रचना म तो पांच गाथाओं का ही उल्लेख है । प्रारम्भ, मध्य और अंत के कुछ श्लोक नीचे दिये जा रहे हैंआदि- पयोधाविव सश्रीके पूरे विजय पूर्वके।
सूर वत्कमलोल्लासी नृपः मूराङ्गदोऽभवत् ।।१।। वीराङ्गद सुतस्तस्य महावीर शिरोमणिः।
सुमित्रो नाम तन्मिन्नं स्वदेह इव वल्लभ ।।२।। मध्ये
पठत्वं जगती स्वामिन्नुपसर्गहिरं स्तंवम् । श्रीमतः पार्श्वनायस्य सा भाणीदितिकोमरहम् ।।६७।। उवसग्गहरं पास, पासं वदामि कम्म इत्यादि पंच गाथा यावत् पार्श्वनाथ स्तव पाठेबोय शान्ते पावकाच्चिषि । उत्ततार नृपो रण्यं शीतलं जल सिक्तवत् ॥६८।। युगप्रधान श्रीभद्रबाहु स्वामिना व्यन्तरस्ततः । बोधितस्तेन लेप्येव कारिता प्रतिपार्हतः ।।६३।। इदं च कथितं स्तोत्र मुपसगहिराभिन्धम । अधापि पच्चतेशश्वत्प्रभावक निबन्धम् ।।६४॥
अन्त--
११० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान