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सिंघी जैन ग्रंथमाला से सम्वत् २००५ में प्रकाशित भी हो चुका है। इस संस्करण के किचित् वक्तव्य में मुनि जिनविजयजी ने प्रस्तुत संस्कृत भाषा के भद्रबाहु संहिता के सम्बन्ध में लिखा है कि प्राप्त अंश २६ अध्यायों का है। उसका ग्रंथ परिमाण १५६४ श्लोकों का है । सम्वतों के उल्लेख वाली प्राप्त प्रति सम्वत् १५०४ की लिखी हई है। दूसरी प्रति इससे कुछ पहले की है पर दोनों प्रतियां किसी ताड़पत्रीय प्रति की नकल-सी लगती हैं। अतः जिनविजयजी की राय में यह ग्रंथ करीब १००० वर्ष पुराना होना चाहिए। भद्रबाहु स्वामी ने स्वयं तो इसे नहीं रचा होगा, पर उनकी रचना के आधार से रचे जाने के कारण इस ग्रंथ का नाम 'भद्रबाहु संहिता' रख दिया प्रतीत होता है। इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय में जो ग्रंथ की विषयसूची दी हुई है, उसके अनुसार तो इस ग्रंथ में ४० या ५० अध्याय होने चाहिए थे । अर्थात् प्राप्त २६ अध्याय वाला ग्रंथ अपूर्ण ही लगता है।
गत वर्ष भटनेर-हनुमानगढ़ के देवी मन्दिर से हमने बड़े ही प्रयत्नपूर्वक बड़गच्छ के प्राचीन ग्रंथ-संग्रह को प्राप्त किया तो उसमें भद्रबाहु रचित 'जन्म प्रदीप' नामक ग्रंथ की एक हस्तलिखित प्रति सम्वत् १७४४ की लिखी हुई प्राप्त हुई । इसमें १२ अध्याय हैं और अंत में भद्रबाहुसंहिता का भी उल्लेख है । यह रचना अभी तक अप्रकाशित होने से इसके आदि और अन्त के श्लोक नीचे दिये जा रहे हैं - आदि--- प्रणिपत्य परमज्योतिस्तेजो जगतीतले तमः शमनं
जन्म प्रदीप शास्त्रं भावाधिप भेदतो वच्क्षे ।।१।। अन्त-- इति जिन धर्म धुरीणः ख्यातः श्रीभद्रबाहुआचार्यः
कृतवान् जन्मविचारं ज्योतिग्रन्थात् समद्धत्य ।।१३।। इतिश्री जैनाचार्य श्री भद्रबाहु स्वामिना विरचिते ग्रह चक्र बलाबले भुवन विचार द्वादशमोध्याय समाप्तं ।
इति श्रीभद्र बाही संहिता मिथ्यात्नांनदया कदापिन् ।।।
सम्वत १७४४ वर्षे फागुण वदि ३ गुरौ लिखितमं मुनि रत्नसिंहेन । श्रीआसणी कोट मध्ये । यादृशं पुस्तके दृष्टं, तादृशं लिखित्तमय । यदि शुद्धमशुद्ध वा ममदोषोन दीयते ।।
बहुत खोज करने पर इस रचना की अन्य एक प्रति स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह में होना ज्ञात हुआ है। वह प्रति भी इसी शताब्दी की है और अभी ला० द० भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में सुरक्षित हैं। . आ० हरिभद्रसूरि की अज्ञात रचना
संस्कृत भाषा का प्रभाव जब बहुत बढ़ गया तो जैनाचार्यों को भी संस्कृत में ग्रंथ लिखना आवश्यक लगा। प्राप्त जैन संस्कृत साहित्य में संभवत: सबसे पहला ग्रंथ आचार्य उमास्वाति रचित तत्वार्थसूत्र है, जिसे दूसरी शताब्दी की रचना
१०८ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान