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________________ आचार्य भद्रबाहु और हरिभद्र की अज्ञात रचनाएं अगरचन्द नाहटा जैन तीर्थंकरों ने प्रधानतया लोक-कल्याण का उपदेश दिया पर साथ ही तत्त्वविज्ञान की बातें भी उनके प्रवचनों में आती रही हैं। जिनवाणी को गौतम आदि गणधरों ने सुनकर एक व्यवस्थित रूप दिया जिससे शिष्य-प्रशिष्यों को उनका पाठ दिया जा सके। इसीलिए कहा गया है कि 'अत्थंभासइअरहा, सुत्तंगुंथन्ति गणहरा निउणा ।' भगवान् महावीर की वाणी को 'अर्द्धमागधी' भाषा कहा जाता है | अतः एकादशांग साहित्य अर्द्धमागधी प्राकृत में हैं । बारहवां दृष्टिवाद नामक अंग सूत्र काफी समय से विच्छेद है । उसके आधार से कुछ प्रकरण आदि ग्रंथ रचे गये वे प्राप्त हैं । १४ पूर्व नामक विशाल और विविध विषयक साहित्य इस दृष्टिवाद के अन्तर्गत ही था । दृष्टिवाद का जो विवरण समवायांग या अन्य नंदी सूत्र मिलता है, इससे उसकी महानता और महत्त्वता भली-भांति सिद्ध होती है । जिस दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ उसी रात्रि को उनके प्रथम गणधर 'इन्द्रभूति' गौतम को केवलज्ञान हुआ । अतः पांचवें गणधर सुधर्मा स्वामी ही चतुर्विधसंघ का संचालन करने लगे । उन्होंने अपने प्रधान शिष्य जंबू स्वामी को सम्बोधित करते हुए कहा है कि भगवान् महावीर ने मुझे अमुक अंग इस रूप में सुनाया यानी भगवान् महावीर ने मुझे जिस रूप में कहा, वही मैं तुम से कह रहा हूं । ११ अंग सूत्रों के अतिरिक्त उपांग आदि सूत्र समय-समय पर बनते रहे हैं पर उनमें केवल ४-५ सूत्रों के रचयिताओं के नाम ही हमें ज्ञात हैं, बाकी आगमों में उनके रचयिताओं का उल्लेख हमें नहीं मिलता । जंबू स्वामी अंतिम केवली थे । उन्होंने तथा उनके शिष्य प्रभव स्वामी ने कोई ग्रंथ नहीं बनाया । प्रभव के शिष्य भवस्वामी ने दशवैकालिक सूत्र संकलित किया। उसके बाद ग्रंथकार के रूप में जो सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं, वे हैं - अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी । उछेद सूत्रों और कल्पसूत्र के निर्माता तो वे निर्विवाद रूप में माने जाते हैं, पर परंपरा के अनुसार १० आगमों की महत्त्वपूर्ण नियुक्तियां भी उन्होंने ही बनायीं, जिनमें से १०६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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