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________________ तीर्थयात्राका असली फल जो नितना अधिक ज्ञानी होता है वह उतनी ही सरल रीतिसे अपनी आवश्यकताओंको पूर्ण कर सुखी होता है। जब मनुष्य बाल्यावस्थामें रहना है तब उसको me मापारणमे भी माधारण आपथ्यकताओं को पूर्ण कर ' में बहुत तकरीफ उठानी पड़ती है, परन्त जम कर प्रौद हो जाता है तब उनरी आवश्यक्ताओंको बड़ी सरल गनिमे यह पूर्णकर देना है इन मनका कारण सोचनेपर यही निश्चित होता है कि ज्यों २ मनुस्यों ज्ञान का विकास होता नाता है त्यो २ वह अपनी आवश्यकताओंको परलेमे अधिक सम्दतासे पूर्ण करनमें क्षम होना जाना है। इस लिये जिस तरह बने उस तरह मन्यको अपना ज्ञान उत्तरोत्तर बढाना चाहिये, यदि वह मंगारमें मुगी होकर रहना चाहता है तो आन भारतवर्षकी जो हात है निमको टेराकर भारतहिती दिन गत आखोसे आट २ आसू वराते रहते है उसका मुख्य कारण यही है कि नामे उसने विकाममिवान्त मुख मोड़कर लकीरके फकीर का पथ पकड़ा. नवहीसे उसको इसके बदलेमें ऐसा प्रतिफल मिला है कि इसके गठेमें अनिधिन अपषिके लिये गुलामी की अपवित्र नीर पढ़गई । हमारे पूर्वन हमारे जैसे कूपमंदूक नहीं थे।
SR No.010325
Book TitleJain Tirth Yatra Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDahyabhai Shivlal
PublisherDahyabhai Shivlal
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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