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________________ (३४) मूत्रको डालना थूकना तथा जूता पहिनकर जाना भी एक तरहका पाप है, उससे यात्रीको वचना चाहिये । __ यात्रीको चाहिये कि वह स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहिन ४ बने रात्रिके लगभग पर्वतबंदनाके लिये चले और वन्दना करके डेरापर लौट आवे । पर्वतपर जानेके लिये सरकारी रास्ता ऐसा बना है कि अन्धेरी रातममी यात्री अकेला चला जा सकता है। मधुवनसे अढाई मील ऊपर चढनेसे गंधर्वनाला आता है-वहांसे डेढ मील ऊपर जानेसे सीतानाला आता है, इस नालेका पानी वरफ जैसा ठंडा रहता है, यहांपर यात्री लोग अपनी २ पूजनकी सामग्री व पुन धो लेते हैं, यहासे १ मील तक पत्थरकी सीढ़ियां भी बनी है। बड़ा विलक्षण आनंद मालूम होता है, एक तरफ नालेका कलकल शब्द सुनाई पड़ता है, दूसरी ओर प्रकृति देवीका रमणीक उपवन (बगीचा ) लह लहाता दिखाई पड़ता है । साम्हने सीढ़ियोंकी पंक्ति अत्यंत मनोहर दीख पड़ती है, उन गगनचुम्बी शैल शिखरोंको देखतेही चपल मन उनके पास उड़ जाता है। उन महात्माओंको धन्य है कि जिन्होंने अपने तथा जगतके उपकारके लिये ऐसा निर्जन स्थान दंदा । आज तक भी उस जंगलमें उन ऋषियोंके पवित्र उपदेश की झनक कानोंमें पड़ती है। उनका उपदेश भी कैसा था जिसकी शान्त, उदार तथा पवित्र छायामें सारे संसारके प्राणियोंको सच्ची शांति मिलती थी ( सत्वेषु मैत्री गुणिषुप्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरित्वम्, माध्यस्थमावे विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देवः)।
SR No.010325
Book TitleJain Tirth Yatra Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDahyabhai Shivlal
PublisherDahyabhai Shivlal
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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