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________________ यही सोचकर हमने वि० सं० १९७८ में कलकत्ता चातुर्मास किया था और तब चार महिने भारी परिश्रम करके यह पुस्तक अपने प्रत्यक्ष अनुभवसे लिखी थी। फिर इसको छपाकर प्रचार करनेका विचार हुमा । तदनुसार कलकत्ता समानको छपानेको कहा तो कलकत्ताके धर्मप्रेमो भाइयोंने इसको छपाकर प्रचार करनेका निश्चय कर लिया। इसी प्रकार कलकत्ताकी उदार, दानी समाजमे प्रथमावृत्ति २९०० पुस्तकें चंदा करके छपाई । इसलिये कलकत्ता समान एवं वा. किशोरीलालजी पाटणीको जितना धन्यवाद दिया जाय थोड़ा है। प्रथमावृत्तिकी पुस्तकें वितीर्ण होनेपर समाजमें इसकी मांग बहुत हुई । फिर वि० सं० १९८३ में गया प्रतिष्ठा हुई थी। और सं० १९८५ में फाल्गुन मासमें तीर्थराजश्री सम्मेदशिखरजी का श्री. सेठ घासीलाल पुनमचंद हुमड बम्बईवालोंने संघ निकाला था, उसमें आचार्य श्रीशांतिसागरजी महाराज (दक्षिण) भी अपने संघ सहित पधारे थे | उनके संघमें १० मुनि, ४ आर्यिका, ५० ब्रह्मचारी, १ क्षुलक व ऐलक थे। जनताकी संख्या भी एक लाख होगी। उसीसमय संघपति सेठ घासीलाल पूनमचन्दजीने जिनबिंब प्रतिष्ठा कराई थी। वहांपर मैं भी गया था। सो उक्त दोनों प्रतिछाओंमें हजारों भाइयोंने यात्राकी पुस्तककी मांग की। और कई सजनोंने पुनः प्रेरणाकी कि आपकी पुस्तक उपयोगी है, माफ उसको पुनः प्रकाशित कराईये। इतनेमें सुरतके दिगम्बर जैन पुस्तकालयके मालिक श्री. सेठ मुलचन्द किसनदासजी कापड़िया मिले, उनसे इस बातकी
SR No.010324
Book TitleJain Tirth Yatra Darshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGebilal Bramhachari, Guljarilal Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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