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इन स्थानों की अब कोई वन्दना नही करता । किन्तु इनकी रक्षा करना आवश्यक है |
सोरठ महल से जैन मन्दिर प्रारम्भ हो जाते है । इन सब पर प्रायः श्वे० जैनियो का अधिकार है। श्री कुमारपाल - तेजपाल आदि के बनवाये हुये मन्दिर अवश्य दर्शनीय हैं, उनका शिल्पकार्य अनूठा है। इन मन्दिरों में एक प्राचीन मन्दिर 'ग्रेनिट' ( granite ) पाषाण का है, जिसकी मरम्मत सं० १९३२ में सेठ मानसिंह भोजराज ने कराई थी और जिसे मूल में कर्नल टाड सा० दिगम्बर जैनियों का बताते है । यही श्री नेमिनाथ मन्दिर के दालान में वर्जेस सा० ने एक चरणपादुका सं० १६१२ की भ० हर्ष कीर्ति की देखी थी। मूलसंघ के इन भट्टारक ने तब यहां की यात्रा की थी । मूलतः यह मन्दिर दि० जैन ही है । यहां से आगे एक कोट में दो मन्दिर बड़े रमणीक और विशाल दिगम्बर जैनों के हैं। इनमें एक प्रतापगढ़ निवासी श्री बडोलाल जी का सं० ० १६१५ का बनवाया हुआ है। दूसरा लगभग इसी समय का सोलापुर वालों का है। इसके अतिरिक्त एक छोटा-सा मन्दिर दिल्ली के श्री सागरमल महावीर प्रसाद जी ने सं० १९७७ में था । इस मन्दिर में हो यहाँ पर सबसे प्राचीन खङ्गासन प्रतिमा विराजमान है, जिस पर कोई लेख पढ़ने में नहीं प्राता है, वैसे श्री शान्तिनाथ जी की सं० १६६५ की प्रतिमा प्राचीन हैं। सं० १९२० की नेमिनाथ स्वामी की एक प्रतिमा गिरिनार जी में प्रतिष्ठित की हुई है, जिससे अनुमानित है कि उस वर्ष यहां जिन बिम्ब प्रतिष्ठा हुई थी । इस पहली टोंक पर ही विशाल मन्दिर हैं। अन्य शिखरों पर यह विशेषता नहीं है ।
इस मन्दिर समूह के पास ही राजुल जी की गुफा हैं वहाँ पर राजुलजी ने तप किया था। इसमें बेठकर घुसना पड़ता है ।