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[८३] दिन तुम्हारी ही परिक्रमा देते हैं) किन्तु यही क्या ? ऐसा कौन है जो तुम पर मुग्ध न हो ! जय हो, एक मात्र पर्वत रैवत की ! जिसके दर्शन करने से लोग भ्रान्ति को खोकर आनन्द का भोग करते और परम सुख को पाते हैं !" ... गिरिनार के दूसरे नाम ऊर्जयन्त और रैवत पर्वत भी हैं। वह समुद्रतल से ३६६६ फीट प्राकृतिक सौन्दर्य का अपूर्व स्थल है। उस पर तीर्थो, मन्दिरों, राजमहलों, क्रीडाकुन्जों, झरनों
और लहलहाते वनों ने उसकी शोभा अनूठी बना दी है। उसकी प्राचीनता भी श्री ऋषभदेव जी के समय की है। भरत चक्रवती अपनी दिग्विजय में यहाँ आये थे। एक ताम्रपत्र से प्रकट है कि ई० पूर्व ११४० में गिरिनार (रैवत) पर भ० नेमिनाथ जी के मंदिर बन गए थे। गिरिनार के पास ही गिरिनगर बसा था, जो
आजकल जूनागढ़ कहलाता है। यहीं पर चन्द्रगुफा में प्राचार्यवय्यं श्रीधरसेन जी तपस्या करते थे और यहीं पर उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त नामक आचार्यों को आदेश दिया था कि वह अवशिष्ट श्रु तज्ञान को लिपिबद्ध करे। सम्राट अशोक ने यहीं पर जीवदया के प्रतिपादक धर्मलेख पाषाणों पर लिखाये थे । छत्रपरुद्रसिंह के लेख से प्रगट है कि मौर्य काल में एवं उसके बाद भी गिरिनार के प्राचीन मंदिर थे। वे तूफान से नष्ट हो गये थे। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु श्री भद्रबाहु स्वामी भी गिरिनार पधारे थे। दि. जैन मुनिगण गिरिनार पर ध्यानलीन रहा करते थे। छत्रप रुद्रसिंह ने सम्भवतः उनके लिए गुफायें बनवाई, आचार्य समन्तभद्र ने जो विक्रम की '३ री-४ थीं' शताब्दी के प्राचार्य हैं, उन्होंने स्वयंभूस्तोत्र में भगवान नेमिनाथ का स्तवन करते हुए लिखा है कि प्राज मुनिगण यात्रार्थ पाते हैं। समन्तभद्र ने स्वयं भी यात्रा की थी। जैसा कि स्वयंभूस्त्रोत से प्रकट है। 'हरिवंश पुराण' में श्री जिनसेनाचार्य ने लिखा है कि अनेक यात्री श्री गिरिनार की वन्दना